ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- VII October  - 2024
Anthology The Research

वेदान्त दर्शन : आत्म तत्त्व का स्वरूप

Vedanta Philosophy : Nature of the Self
Paper Id :  19373   Submission Date :  2024-10-07   Acceptance Date :  2024-10-21   Publication Date :  2024-10-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
DOI:10.5281/zenodo.14233734
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
कमलेश कुमार गुप्ता
शोध छात्र
संस्कृत विभाग
बनस्थली विद्यापीठ
राजस्थान, भारत
सारांश

भारतीय दर्शनों की श्रेष्ठतम श्रृंखला में से एक प्रमुख दर्शन है वेदान्त दर्शन। वेदों के अन्तिम भाग उपनिषद् पर आधारित होने के कारण इसे वेदान्त कहा जाता है। वेदान्त दर्शन प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, गीता) पर आधारित है। वेदान्त शब्द का अर्थ है - वेदों का अन्तिम या उत्तर भाग। पूर्व में वेदान्त शब्द का प्रयोग उपनिषदों के लिए होता था क्योंकि उपनिषद् वेदों के अन्तिम भाग थे। वेदों का अन्तिम भाग होने के कारण उपनिषदों को वेदान्त कहा जाता था। धीरे-धीरे उपनिषदों से जितने भी दर्शन विकसित हुए सभी को वेदान्त की संज्ञा से विभूषित किया गया। वेदों के आत्म प्रतिपादिक अन्तिम भाग उपनिषद् ही वेदान्त है। वेदान्तसार के अनुसार -

‘‘वेदान्तो नामोपनिषत्प्रमाणं तदुपकारीणि शारीरिक सूत्रादीनि च।।’’

उपनिषद् पर आधारित वेदान्त दर्शन वेद के उत्तर भाग ज्ञानकाण्ड का विवेचन करने वाला होने से उत्तरमीमांसा के नाम से भी जाना जाता है। उपनिषदों के अर्थ का निर्णय ब्रह्मसूत्रों से किया जाता है। इस कारण ब्रह्मसूत्रों को वेदान्त शब्द से कहा जाता है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Vedanta philosophy is one of the best philosophies in the series of Indian philosophies. It is called Vedanta because it is based on the last part of the Vedas, the Upanishads. Vedanta philosophy is based on Prasthanatrayi (Upanishads, Brahmasutra, Geeta). The word Vedanta means the last or the latter part of the Vedas. Earlier, the word Vedanta was used for the Upanishads because the Upanishads were the last part of the Vedas. Being the last part of the Vedas, the Upanishads were called Vedanta. Gradually, all the philosophies that developed from the Upanishads were given the name of Vedanta. The self-propounding last part of the Vedas, the Upanishads, is Vedanta. According to Vedantasaar -

"Vedanto namopanishatpramanam tadupkarini sharirik sutradini cha."
The Vedanta philosophy based on Upanishads is also known as Uttarmimamsa as it deals with the Gyankanda, the northern part of the Veda. The meaning of the Upanishads is decided by the Brahmasutras. This is why Brahmasutras are called by the word Vedanta.
मुख्य शब्द वेदान्त दर्शन, वेदान्त , उपनिषद्
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vedanta Philosophy, Vedanta, Upanishads
प्रस्तावना

उपनिषद् पर आधारित वेदान्त दर्शन वेद के उत्तर भाग ज्ञानकाण्ड का विवेचन करने वाला होने से उत्तरमीमांसा के नाम से भी जाना जाता है। उपनिषदों के अर्थ का निर्णय ब्रह्मसूत्रों से किया जाता है। इस कारण ब्रह्मसूत्रों को वेदान्त शब्द से कहा जाता है।

वेदान्त दर्शन का आधार बादरायण का ब्रह्मसूत्र कहा जाता है। ब्रह्मसूत्र उपनिषदों में सामंजस्य लाने के उद्देश्य से लिखा गया था। उपनिषद् संख्या में अनेक थे। विभिन्न उपनिषदों की शिक्षा के विषय में विद्वानों में मतभेद थे। कुछ विद्वानों का कहना था कि उपनिषद् एकवाद है तथा कुछ द्वैतवाद की शिक्षा के रूप में मानते हैं। उपनिषदों के गम्भीर अध्ययन के अभाव में उनके सिद्धान्तों में एकवाक्यता लक्षित नहीं हो पाती, इससे उनमें विरोध लक्षित होने लगता है। उन विरोधों को दूर करते हुए उनमें एकवाक्यता स्थापित करने के लिए बादरायण ने ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या की। उन्होंने स्पष्ट किया कि समस्त उपनिषद् विचार में एक मत हैं। उपनिषदों की उक्तियों में जो विशमता दिखाई पड़ती है वह उपनिषदों को न समझने के कारण है।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य वेदान्त दर्शन और आत्म तत्त्व का स्वरूप का अध्ययन किया गया है

साहित्यावलोकन

इस शोधपत्र के लिए विभिन्न शोधपत्रों और पुस्तकों का अवलोकन किया गया है

मुख्य पाठ

वेदान्त दर्शन को ही वेदान्त सूत्र भी कहा जाता है, क्योंकि वेदान्त दर्शन ब्रह्मसूत्र से ही प्रतिफलित हुआ है। ब्रह्मसूत्र अन्य सूत्रों की तरह संक्षिप्त तथा दुर्बोध थे। बादरायण ने ब्रह्मसूत्रों का संकलन किया है। इन्होंने बादरि, कार्ष्णाजिनि, आत्रेय, आश्मरथ्य, औडुलौमि आदि के विचारों को संकलित कर वेदान्त दर्शन के मूल सिद्धान्तों पर विचार कर संकलन का नाम ब्रह्मसूत्र रखा। ब्रह्मसूत्र में चार अध्याय हैं -

  1. समन्वयाध्याय
  2. अविरोधाध्याय
  3. साधनाध्याय
  4. फलाध्याय

ब्रह्मसूत्र की संक्षिप्तता तथा दुर्बोधता के फलस्वरूप अनेक प्रकार की शंकायें उपस्थित हुई। इन शंकाओं के समाधान की आवश्यकता महसूस हुई। इस उद्देश्य से अनेक भाष्यकारों ने ब्रह्मसूत्र पर अपने अलग-अलग भाष्य लिखे। प्रत्येक भाष्यकार ने अपने भाष्य की पुष्टि के निमित्त वेद और उपनिषद् में वर्णित विचारों का उल्लेख किया। जितने भाष्यकार हुए वेदान्त दर्शन के उतने ही सम्प्रदाय विकसित हुए। यथा-अद्वैत वेदान्त, विशिष्टाद्वैत वेदान्त, द्वैताद्वैत वेदान्त आदि।

आत्मा का स्वरूप आत्मा सत् चित् और आनदस्वरूप है। वह अनन्त देश, काल कृत परिच्छेद से शून्य तथा अद्वय अर्थात् द्वैतरहित है जिसे ब्रह्म भी कहा जाता है। वेदान्त में सार रूप में कहा जाता है -

‘‘सच्चिदानन्दमनन्ताद्वयं ब्रह्म।’’

आत्मा का सत् स्वरूप - सत् का अर्थ है जिसकी सत्ता का कभी विच्छेद न हो, जो त्रिकालाबाध्य हो, भूत, वर्तमान, भविष्य इन तीनों कालों में जिसका कभी बाध-अभाव न हो। इस प्रकार ब्रह्म (आत्मा) सदा अमर है, एक स्वभाव है, उसमें कोई हृास-विकास नहीं होता, उसके पैदा होने, घटने-बढ़ने, रोगी होने, दुर्बल होने के कारणों की कल्पना नितान्त मूढ़ता है।

वेदान्त दर्शन के अनुसार आत्मा ही सत् है -‘‘आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राह्यति च।’’

यह आत्मा उत्पन्न नहीं होता और न ही मरता है तथा यह आत्मा कहीं से अर्थात् किसी अन्य कारण से उत्पन्न नहीं हुआ और न अर्थान्तर रूप से स्वयं अपने से ही हुआ है। इसलिए यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत, क्षय रहित है। शास्त्रादि द्वारा शरीर के मारे जाने पर भी वह नहीं मरता -

‘‘न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।’’

वस्तुतः आत्मा न तो किसी को मारता है और न इसे कोई मार सकता है -‘‘नायम् हन्ति न हन्यते।’’

आत्मा सबसे सूक्ष्म और गूढ़ है -‘‘एषु सर्वेषु भूतेषु गूढ़ोत्मा।’’

उपनिषदों को प्रमाण मानते हुए वेदान्तदर्शन पर लिखे सूत्र रूप ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र के रचयिता बादरायण ने आत्मा का स्वरूप बताया है -‘‘जन्माद्यस्य यतः।’’ अर्थात् इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय जिससे अथवा जिसमें स्थित होते हैं वह आत्मा है।

आत्मा सर्वव्यापक है, दृश्यमान जगत् जिसे प्रकाश्य कहता है, वह आत्मतत्त्व से पृथक् कुछ भी नहीं है। यह जो अविद्यामयी दृष्टि युत को आत्मा से भिन्न जगत् सामने दिखाई दे रहा है, वह अविनाशी आत्म अथवा ब्रह्म ही है। इसी प्रकार पीछे भी आत्मा है। दायीं तथा बायीं ओर भी आत्मा ही है। नीचे की ओर तथा ऊपर की ओर भी आत्मा है। आत्मा ही सभी ओर कार्यरूप से नामरूप विशिष्ट होकर फैला हुआ है। यह समस्त जगत् श्रेष्ठतम आत्मा ही है। वही एकमात्र सत्य है, जगत् मिथ्या है -‘‘ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चादूब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण।

अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्मिदं वरिष्ठम्।।’’

अद्वैतवेदान्त में आत्मा को ही एकमात्र सत्य माना है अन्य सभी असत्य अर्थात् मिथ्या है -‘‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।’’

वेदान्त सिद्धान्त के अनुसार एकमात्र आत्मा अथवा ब्रह्म ही वस्तु है क्योंकि ‘‘यद् वसत्येव तिष्ठत्येव वा तद् वस्तु’’ जो सर्वथा स्थित ही होता है, किसी भी काल में जिसकी निवृत्ति नहीं होती, वही वस्तु है। इसके अनुसार किसी भी काल में बाधित न होने से त्रिकालाबाधित आत्मा ही वस्तु है।

आत्मा का चित् स्वरूप -चित् का अर्थ है चेतना या चैतन्य। आत्मा को चित् कहने का अर्थ है कि वह चैतन्य रूप है। उसमें किसी प्रकार की जड़ता नहीं है। वह सारे जगत् का प्रकाशक है और स्वयं अपने आप प्रकाशमान है। उसे स्वयं प्रकाशित होने के लिए किसी अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं होती -‘‘तदेव ज्योतिषां ज्योतिः।।’’

‘‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।’’

आत्मा अनन्त सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् है। वह भूत जगत् का आधार है। जगत् आत्मा का विवर्त है परिणाम नहीं। आत्मा को विश्व का कारण माना गया है। उस आत्मा से ही सम्पूर्ण विश्व हुआ है -

‘‘तस्मात्तत्सर्वमभवत्।।’’

आत्मा समस्त जीवों के प्रलयकाल में भी अपनी महिमा से नित्य जागता रहता है-‘‘य एषु सुप्तेषु जागर्ति।।’’

वेदान्त के अनुसार आत्मा सर्वव्यापक है। आत्मा को अज्ञान के कारण मनुष्य आवरणयुक्त मानता है किन्तु अज्ञान निवृत्ति होने पर आत्मा मात्र ही शेष रह जाता है। जैसे अनन्त ब्रह्माण्ड के प्रकाशक सूर्य को दीपक का स्वल्प प्रकाश प्रकाशित करने में असमर्थ हो सूर्य के समक्ष सूर्य के प्रकाश से अभिभूत हो जाता है। उसके प्रकाश का पता ही नहीं चलता। वैसे ही अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित चैतन्य (चिदाभास) भी स्वयं प्राशमान प्रत्यगात्माभिन्न परब्रह्म को प्रकाशित करने में असमर्थ होने के कारण उससे अभिभूत हो जाता है एवं जैसे मुख प्रतिबिम्ब दर्पण का नाश होने से मुखमात्र (बिम्बमात्र) हो जाता है। वैसे ही अपनी उपाधिभूत अन्तःकरण ही अखण्डाकारा वृत्ति का विनाश होने से प्रत्यागात्माभिन्न परब्रह्म हो जाता है।

इस प्रकार आत्मा को ही परमनित्य स्वरूप एक ही कहा है। वह आत्मा सम्पूर्ण चराचर विश्व में स्थित है -

‘‘य आत्मा सर्वान्तरः।।’’

वह आत्मा ही पूर्ण रूप हे -‘‘ओम् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णदुच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।’’

वह आत्मा सब प्रकार से परिपूर्ण है। पूर्ण आत्मा से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होती है। आत्मा से पूर्ण जगत् को पृथक् कर देने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है अर्थात् पूर्ण जगत् के उत्पन्न हो जाने पर भी आत्मा पूर्ण ही रहता है। वह प्राण है -‘‘प्राण इति स ब्रह्मः।’’

आत्मा आनन्द स्वरूप है -आत्मा अर्थात् ब्रह्म को आनन्दस्वरूप भी कहा है -‘‘आनन्दो ब्रह्मेति।’’

वह आत्मा निश्चित रूप से रस ही है, इस रस को प्राप्त करके पुरूष आनन्द में निमग्न हो जाता है -

‘‘रसो वै सः।’’

आत्मा को ही आनन्द तथा ज्योतिरूप माना है -‘‘तदेव ज्योतिषां ज्योतिः।’’ ‘‘आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।’’

वह आत्मा न तो वाणी और ना मन और ना ही नेत्रों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है -‘‘नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुसा।’’

वह आत्मा ही परमानन्द है -‘‘एषः परमानन्दः।’’

ब्रह्म ही अक्षर, परिणामरहित, ओंकारस्वरूप तथा सर्वव्यापक है। वह विज्ञान एवं आनन्दस्वरूप है -‘‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म।’’

आत्मा आनन्दरूप है, आनन्द का अर्थ है आ-समन्तात्-चतुरस्त्रम् नन्दति-समृद्ध्यति।जो सब प्रकार से समृद्ध हो, जिसमें कोई कमी न हो, जो सर्वथा पूर्ण हो, वह आनन्द है। आनन्द को सुख कहा गया है। सुख का अर्थ है - सुष्ठु खं यस्मात् तत् सुखम्।’ ‘का अर्थ है आकाश। यह अन्य सभी भूतों का उपलक्षण है। अतः सुख का अर्थ होता है वह तत्त्व जिसमें आकाशादि सभी भौति पदार्थ सुष्ठु, सुन्दर तथा आनन्दानुभावक हो जाते हैं वह तत्त्व है - आत्मा। आत्मा की आनन्दरूपता में सबसे प्रबल प्रमाण है श्रुतिवचन है। जैसे -‘‘आनन्दरूपममृतं यद् विभाति।’’

आत्मा अनिर्वचनीय है -वह आत्मा न तो वाणी और नाम तथा ना ही नेत्रों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है -

‘‘नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यों न चक्षुसा।’’

केनोपनिषद् में आत्मा को कहा है -‘‘यद्वाचानभ्युदितं चेन वागभ्युद्यते। तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि।’’

आत्मा अवाङ्गमनसगोचरम् है -‘‘वा् च मनञ्च वाङ्मनसे, तयो गोचरः वाङ्मनसगोचरः

न वाङ्मनसगोचरः अवाङ्मनसगोचरः।।’’

इस व्युत्पत्ति से इस शब्द का अर्थ है जो वाणी और मन का विषय न हो, जिसका वाणी से वर्णन और मन से चिन्तन न हो सके। इस प्रकार इस शब्द से आत्मा को वाणी और मन की पहुंच से दूर बताया है। श्रुतियों में स्पष्ट है -

‘‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।’’

‘‘नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुसा।’’

वह यह भी नहीं है वह भी नहीं है -

‘‘नेति नेति।’’

वह न स्थूल है, न सूक्ष्म, न हृस्व, न दीर्घ, न रक्त, न द्रव्य, न छाया, न तम, न आकाश, न रस, न गन्ध, न नेत्र, न कान, न वाणी, न मन, न तेज, न प्राण, न मुख, न माप, न आन्तिरि, न ब्राह्य है, न वह किसी का भक्षण करता है, न उसका कोई भक्षण करता है।

अप्राणः और अमनाः पदों से आत्मा की सूक्ष्म देह से भिन्नता कही गई है। आत्मा में पंचवृत्यात्मक, क्रियाशक्तिमान और चलनात्मक वायु नहीं रहता, इसलिए वह अप्राणः है। उसमें संल्पविकल्पात्मक मन नहीं है इसलिए वह अमनाः कहा गया है। भाष्यकार के मत में इन दोनों विशेषणों से ब्रह्म में प्राणादि वायुभेद, कर्मेन्द्रियों और उनके विषय तथा बुद्धि मन, ज्ञानेन्द्रियां और उनके विषय प्रतिषिद्ध हो जाते हैं। अतः वह सभी इन्द्रियों से रहित भी है। प्राणादिवार्जित होने के कारण आत्मा सर्वथा विशुद्ध है। इस प्रकार आत्मा अनिवर्चनीय है।

आत्मा ही एकमात्र परमतत्व है। उससे पूर्व अथवा परे कुछ नहीं है -

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।

मिावरीयवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्।।

सृष्टि से पूर्व कुछ भी नहीं था न मृत्यु थी न जीवन था। केवल आत्म ही था-

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अहन् आसीत् प्रकेतः।

आनीदवातं सवधया तदेकं तस्माद्धान्यन्नपरः किं चनास।।

निष्कर्ष

इस प्रकार वेदान्त दर्शन का परम तत्व है - आत्मा। वह इस सम्पूर्ण विश्व का आधार है। वह अखण्ड, सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है। वेदान्त दर्शन का प्रमुख आधार ग्रन्थ बादरायण रचित ब्रह्मसूत्र माना जाता है। इसमें बादरायण ने परमतत्त्व आत्मा को ही सम्पूर्ण विश्व का आधार कहा है।

वेदान्त के अनुसार यह सम्पूर्ण जगत प्रपंचामात्र है जो उस परमतत्व की अभिव्यक्ति मात्र है। अतः अखिल विश्व का आधार वह परमतत्त्व ही है। वह आत्मा सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. (वे.सा. पृ. 19)
  2. (ब्र.सू. 4.1.3)
  3. (कठ. 1.2.18)
  4. (कठ. 1.2.19)
  5. (ब्र.सू. 1.3.12)
  6. (मु.उ. 1.1.2)
  7. (मु.उ. 2.2.11)
  8. (वृ.उ. 4.4.16)
  9. (कठ. 2.2.15, मुउ. 2.2.10)
  10. (वृ.उ. 1.4.10)
  11. (कठ. 2.2.8)
  12. (वृ.उ. 3.4.1)
  13. (वृ.उ. 5.1.1)
  14. (वृ.उ. 3.9.9)
  15. (तै.उ. 3.6.1)
  16. (तै.उ. 2.7.1)
  17. (वृ.उ. 4.4.16)
  18. (तै.उ. 3.6.1)
  19. (कठ. 2.6.12)
  20. (वृ.उ. 4.3.33)
  21. (वृ.उ. 3.9.28)
  22. (मु.उ. 2.2.9)
  23. (कठ. 2.6.12)
  24. (के.उ. 1.4)
  25. (वे.सा. पृ.9)
  26. (तै.उ. 2.4.1)
  27. (कठ. 2.6.12)
  28. (वृ.उ. 2.3.6)
  29. (वृ.उ. 3.8.8)
  30. (ना.सू. 10.129.1)
  31. (ना.सू. 10.129.3)