P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- XII , ISSUE- III November  - 2024
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika

महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण नारी शाक्ति वंदन अधिनियमके विशेष सन्दर्भ में - एक विश्लेषण

Political Empowerment of Women with Special Reference to Nari Shakti Vandan Act - An Analysis
Paper Id :  19384   Submission Date :  2024-11-12   Acceptance Date :  2024-11-19   Publication Date :  2024-11-22
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DOI:10.5281/zenodo.14378096
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सत्या शुक्ला
असिस्टेन्ट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
कृष्णा देवी गर्ल्स डिग्री कॉलेज, लखनऊ सहयुक्त लखनऊ विश्वविद्यालयए
लखनऊ, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

भारतीय लोकतन्त्र ने पिछले 77 वर्षों में जिस तरह मजबूती से स्वयं को स्थापित किया है उसमें बहुत सारे कारकों का योगदान है। भारतीय जनता की भूमिका इसमें बहुत महत्वपूर्ण रही है। लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में निर्णय निर्माण प्रक्रिया में आम जनता की भागीदारी महत्वपूर्ण होती है। भारतीय लोकतन्त्र के पिछले 77 वर्षों के सफर ने इस बात को मजबूती से स्थापित किया हैं। आम जनता से तात्पर्य सामान्य रूप से उन सभी पुरुषों व महिलाओं से है जो मतदान के माध्यम से लोकतन्त्र में अपनी भागीदारी दर्ज कराते है लेकिन इस भागीदारी में आधी आबादीका प्रतिनिधित्व उचित नही है। आजादी के 77 वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय एवं राज्यों की राजनीति में महिला प्रतिनिधियों की उपस्थिति निराशाजनक है। महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में महिला आरक्षण विधेयकके रूप में उठाये गए कदम को राजनीतिक दलों के विरोध का सामना करना पड़ा। किन्तु नारी शक्ति वंदन अधिनियम के माध्यम से वर्तमान भाजपा सरकार ने महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की आवश्यकता को समझते हुए बेहतरीन पहल की है जो निश्चित रूप से भविष्य में भारतीय राजनीति में आधी आबादी की आवाज को मुखर बनाएगा। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से इसी विषय की पड़ताल करने का प्रयास किया गया है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Many factors have contributed to the way Indian democracy has established itself strongly in the last 77 years. The role of the Indian public has been very important in this. In a democratic system, the participation of the general public in the decision-making process is important. The journey of the last 77 years of Indian democracy has firmly established this fact. The general public generally means all those men and women who register their participation in democracy through voting. But the representation of 'half the population' in this participation is not proper. Even after 77 years of independence, the presence of women representatives in national and state politics is disappointing. The step taken in the form of 'Women's Reservation Bill' towards the political empowerment of women had to face opposition from political parties. But through the Nari Shakti Vandan Act, the present BJP government has taken an excellent initiative understanding the need for political empowerment of women, which will definitely make the voice of half the population vocal in Indian politics in future. An attempt has been made to investigate this subject through the presented research paper.

मुख्य शब्द आधी आबादी, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, महिला आरक्षण, राजनीतिक सशक्तिकरण एवं भारतीय लोकतंत्र ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Political representation of half the population, women reservation, political empowerment and Indian democracy
प्रस्तावना

आजादी के अमृत काल में आधी आबादीके इतिहास को देखें तो निश्चित रुप से यह अनेक उपलब्धियों से भरपूर है। घर की चौखट से निकलकर एक सामान्य भारतीय नारी ने उदीयमान भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी सफलता का परचम लहराया है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक सभी क्षेत्रों में महिला सशक्तिकरण के आदर्श उदाहरण आज हमारे सामने प्रस्तुत करते है। असल में सच्चे लोकतंत्र की सफलता भी इसी बात पर निर्भर करती है कि वह अपने नागरिकों को समान अवसर प्रदान करता है। भारतीय संविधान स्त्री एवं पुरुष दोनो के लिए समान अधिकारों की व्यवस्था करता है, समान अवसर प्रदान करता है किन्तु फिर भी सच्चाई यह है कि भारत की आधी आबादी आजादी के 75 वर्षों बाद भी इन अवसरों/अधिकारों का उपयोग करके राजनीतिक रुप से सशक्त बनने से अभी कोसों दूर है। 1951 से भारतीय लोकतंत्र के अन्तर्गत महिलाएँ औपचारिक राजनीति में एक मतदाता के रुप में, कार्यकर्ता के रुप में एवं लोकसभा व विधानसभा चुनावों में उम्मीदवार के रुप में भागीदारी करती रही है किन्तु निर्णय निर्माण की अधिकारिता वाले स्थानों पर इनकी संख्या काफी कम है। (देसाई और ठक्कर, 2001)

अध्ययन का उद्देश्य

1. आजादी के 77 वर्ष बीतने के बाद भी आधी आबादीको उचित प्रतिनिधित्व न मिलने के कारणों पर प्रकाश डालने हेतु।

2. भारत सरकार द्वारा समय-समय पर नवीन योजनाओं के माध्यम से महिला सशक्तिकरण का प्रयास किया जाता रहा है जैसे- उज्जवला योजना,  बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओं योजना, मुद्रा योजना। लेकिन असली सशक्तिकरण के लिए निर्णय निर्माण प्रक्रिया में उनकी वृहत भागीदारी आवश्यक है। ऐसे में इस बात का अध्ययन किया जाना आवश्यक है कि महिलाओं के लिए राजनीति में आरक्षण उनके राजनीतिक सशक्तिकरण में कितना उपयोगी होगा।

3. पंचायतों एवं नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण से क्या परिवर्तन आए है और इस बात के आधार पर अनुमान लगाना कि राष्ट्रीय व राज्य स्तर की राजनीति में क्या बदलाव दृष्टिगत होगे।

4. नीति निर्माण प्रक्रिया में महिलाओं की वृहत राजनीतिक भागीदारी नीति निर्माण प्रक्रिया पर क्या प्रभाव डालेगी इस बात पर अध्ययन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आवश्यक है।

साहित्यावलोकन

किसी भी लोकतंत्र के लिए चुनाव अहम होते है क्योंकि इसके माध्यम से लोग राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी करते है एवं निर्णय प्रक्रिया के सहभागी बनते है। भारतीय संविधान द्वारा एक मतदाता के रुप में स्त्री व पुरुष आबादी में आरम्भ से कभी कोई भेदभाव नहीं किया गया जैसा कि बहुत से देशों में देखा गया है। (गाबा, 2000) लेकिन राजनीतिक प्रतिनिधित्व की दृष्टि से भारतीय महिलाओं की स्थिति अच्छी नही कही जा सकती है। प्रायः महिलाएँ राजनीतिक दलों की रैलियों व धरना प्रदर्शन में तो दिखाई देती है लेकिन राजनीतिक दल के टिकट पर उम्मीदवार के रुप में या राजनीतिक दलों की निर्णय निर्माण समिति में इनका स्थान नहीं दिखाई देता है। (स्टीफन, 1998) भारतीय लोकतंत्र में आधी आबादी के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की प्रमुख रुप से दो वजह रही है- पहला तो घर परिवार के भीतर जिम्मेदारियों का लैगिंक आधार पर विभाजन है जिसके कारण महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी परिवार की देखभाल में बाधक बनती है। इसके अतिरिक्त दूसरा कारण सामान्य राजनीतिक माहौल / संस्कृति / प्रक्रिया है जिसमें पर्दे के पीछे मीडिया, मनी एवं मसल पावर का खेल चलता रहता है। सामान्य रुप से ऐसे राजनीतिक माहौल में एक महिला प्रतिनिधि को चारित्रिक लांछन, राजनीतिक अपराधीकरण एवं राजनीतिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। जो महिलाएँ राजनीति के इस स्वरुप को स्वीकार कर लेती है वही आगे बढ़ पाती है। (देसाई और ठक्कर, 2001)

उपरोक्त स्थिति को देखते हुए ही महिलाओं के लिए लोकसभा व राज्यों की विधानसभा में सीटों के आरक्षण की माँग की गई। परिणामतः 1996 में पहली बार 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रुप में इसे प्रस्तुत किया गया। अन्तिम बार 2010 में UPA सरकार द्वारा 108वें संविधान संशोधन विधेयक के रुप में इसे प्रस्तुत किया गया। किन्तु राजनीतिक दलों के बीच अनेक बिन्दुओं पर मतभेद होने के कारण यह प्रस्ताव पास नही हो सका। आधी आबादी कमोबेश समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आशा लगभग खो चुकी थी किन्तु वर्ष 2023 में भाजपा सरकार द्वारा नारी शक्ति वंदन अधिनियम के नाम से 106वें संवैधानिक संशोधन के रुप में भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार दोनों सदनों से पास होने के साथ ही समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आशा पुनर्जीवित हो गई है। (तबस्सुम, 2023) वस्तुतः यह अधिनियम समय की जरूरत है। अपर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व ने निश्चित रुप से महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को क्षीण किया है। किन्तु नारी शक्ति वंदन अधिनियम‘ ने आधी आबादी में निश्चित रुप से उस प्रेरणा व उत्साह का संचार किया है जो भारतीय लोकतंत्र के अतंर्गत भविष्य में महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को संभव बनाएगा।

विश्लेषण

स्वतन्त्र भारत में महिलाओं की राजनीतिक स्थिति

भारत 1947 में स्वतन्त्रता की एक लम्बी लड़ाई लड़कर स्वतंत्र हुआ था। उपनिवेश विरोधी इस लड़ाई के दौरान महिलाओं ने व्यापक स्तर पर स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लिया। न केवल अहिंसक आन्दोलनों वरन् हिंसक आंदोलनों में भी महिलाओं की भागीदारी रही। (बासु, 2010) स्वतंत्रता के बाद जो संविधान बना उसमें महिलाओं के प्रति होने वाले भेदभावों से बचाने के लिए अनेक प्रकार के प्रावधान किए गए। साथ ही राज्यों को भी लैंगिक समानता की दिशा में कार्य करने के लिए निर्देशित किया गया। भारत में स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही बिना बहुत संघर्ष के महिलाओं को मतदान का अधिकार प्राप्त हो गया और वे बड़ी संख्या में सार्वजनिक व व्यवसायिक क्षेत्रों में सक्रिय हो गई। ये एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि दक्षिण एशियाई महिलाओं की राजनीतिक सक्रियता काफी हद तक महिलाओं की राष्ट्रवादी आंदोलनों में भागीदारी का परिणाम है। (बासु, 2010) इस प्रकार कह सकते है कि राष्ट्रवादी विमर्श ने महिलाओं की सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ाया।

लेकिन 19वीं सदी के सामाजिक सुधार संकेन्द्रित महिला आंदोलन के विपरीत राष्ट्रवादी विमर्श ने महिलाओं के मुद्दे पर सार्वजनिक रुप से चुप्पी की स्थिति बनाए रखी। राष्ट्रवादी आंदोलन की इस चुप्पी का प्रतिरोध संगठित संघर्ष के माध्यम से महिलाओं द्वारा निरंतर किया गया। उन्होंने समान राजनीतिक अधिकारों से लेकर विधायिकाओं में सीटों व पर्सनल लॉज के मुद्दो पर मुखर होकर अपना पक्ष व्यक्त किया। यहाँ तक कि 1917 से 1942 तक भारत छोड़ों आंदोलन के पहले महिला एक्टिविस्टों द्वारा प्रांतीय विधायकों, औपनिवेशक अधिकारियों को राजनीतिक सुधारों से संबंधित मसलों पर याचिका दी गई। इसके अतिरिक्त अग्रणी राजनीतिक दलों जैसे- काग्रेस व मुस्लिम लीग को भी उनके द्वारा अपनी माँगों से अवगत कराया गया। (रॉय, 2010) ये जानना महत्वपूर्ण है कि उस दौर में केवल पुरुषों का एक छोटा हिस्सा ही सम्पत्ति संबंधी योग्यता रखने के कारण मतदान देने का अधिकारी था। महिलाओं द्वारा अपने संपूर्ण संघर्ष के दौरान औपनिवेशिक सरकार के सामने लैंगिक भेदभाव की शिकायत करने के स्थान पर केवल सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की वकालत की गई। यही वजह रही कि महिलाओं की यह माँग राष्ट्रवादी आंदोलन की राष्ट्रीय नागरिकता एवं आत्मनिर्णय की माँग से तादात्मय स्थापित कर सकी। (रॉय, 2010)

स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में महिलाएं सामाजिक आंदोलनों के माध्यम से सक्रिय रही। वृक्षों को काटने, आदिवासियों के भूमि संबंधी अधिकारों व निचली जातियों के उपर किए जाने वाले अत्याचारों को लेकर बहुत सारे आंदोलन किए गए। इसी समय शहरी क्षेत्रों में नारीवादी संगठनों का निर्माण राजनीतिक दलों से स्वायत्त होकर किया गया जिनकी मुख्य चिंताए महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा, दहेज हत्या, बलात्कार जैसी घटनाएँ थी। इन शहरी नारीवादी संगठनों की मुख्य विशेषता थी कि ये राजनीतिक दलों से स्वायत्त रहती थी किन्तु न्यायालयों व नौकरशाही के साथ नजदीकी संपर्क बनाकर काम करने में यकीन करती थी। (मेनन, 2000) इस प्रकार ये स्पष्ट है कि स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में हुए महिला आंदोलनों के मुख्यतया दो रुप देखने को मिलते है- एक जमीनी स्तर का आंदोलन जो आदिवासियों, भूमिहीन गरीबों, झुग्गी बस्तियों व खेतिहर मजदूरों पर आधारित था जिनकी कोई चुनावी महत्वाकांक्षा नहीं थी एवं दूसरा शहरी नारीवादी आंदोलन जो मुख्यतया महिलाओं के विरुद्ध बरती जाने वाली हिंसा जैसे गैर चुनावी मुद्दों पर आधारित था। एक तरह से इन दोनों प्रकार के आंदोलनों ने चुनावी राजनीति पर बहुत कम ध्यान दिया और चुनावी राजनीति पर इनका असर भी कम रहा।

आजादी के बाद के वर्षों में महिलाओं के प्रश्न एवं उनमें बढ़ते असंतोष का एक मुख्य कारण सरकार की विकास संबंधी नीतियाँ भी थी। 1971 में महिलाओं की प्रस्थिति (Status) पर बनी एक समिति की रिपोर्ट टूवार्डस इक्वलिटिनाम से जारी की गई जिसमें विकास व राष्ट्र निर्माण का महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा है इसका बारीक अध्ययन किया गया था। इस रिपोर्ट के माध्यम से ये प्रकाश में आया कि स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं की राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति का काफी क्षरण हुआ है विशेषकर ग्रामीण व गरीब महिलाओं की स्थिति पहले से खराब हुई है। इस रिपोर्ट की वजह से महिला संबंधीअध्ययन को भारत में एक अनुशासन के रुप में स्थापित होने में सहायता मिली। (मजूमदार एवं अग्निहोत्री, 1999) 19701980 के दशक में बहुत से आंदोलनों के माध्यम से महिला सक्रियतावाद दिखाई दिया जिसमें बेरोजगारीए गरीबी के मुद्दे को उठाया गया एवं विकास को पुनर्परिभाषित करने पर बल दिया गया। हालांकि महिलाओं के वृहद स्तर पर सक्रिय होने के बावजूद राजनीतिक दलों ने महिला मुद्दों को प्रोत्साहित करने या प्राथमिकता देने में कोई रुचि नही दिखाई। यह इससे भी स्पष्ट था कि महिलाओं का राजनीतिक दलों के सांगठनिक संरचना में अपर्याप्त मौजूदगी थी। चुनावों में दलगत उम्मीदवार के रुप में उनकी संख्या बहुत कम थी एवं संसद में उनका अपर्याप्त प्रतिनिधित्व था। (रॉय 2010) महिलाओं के विकास के संबंध में/संबंधित दिल्ली प्रपत्र या दिल्ली डाक्यूमेंट (1985) में भी यह बात स्वीकार की गई है कि यद्यपि महिलाओं ने अनौपचारिक राजनीति के माध्यम से अपने हितों को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है किन्तु औपचारिक राजनीतिक संरचना में उनकी भूमिका में कोई परिवर्तन नही हुआ है।

महिलाओं के राजनीतिक गतिविधियों में कम भागीदारी के बहुत से कारण है। परिवार के भीतर श्रम का लैंगिक आधार पर विभाजन होने के कारण घर की सारी जिम्मेदारी महिलाओं की होती है। अतः घर के पुरुषों को राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने का अवसर मिलता है। राजनीतिक संस्कृति भी पर्याप्त हद तक महिलाओं की कम भागीदारी की जिम्मेदार है। चरित्र दूषण, राजनीति के अपराधीकरण व राजनीतिक हिंसा दूषित राजनीतिक संस्कृति की ही पहचान है। इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि महिलाओं के वोट राजनीतिक दलों अथवा समाज द्वारा महिला वोट बैंक की तरह नहीं देखे जाते है। इसीलिए राजनीतिक दल महिला प्रत्याशियों को टिकट देने से कतराते है। महिलाएँ चुनाव के लिए धन जुटाने में भी असमर्थ रहती है। प्रायः इन्हीं सब कारणों से राजनीति में महिलाओं की भागीदारी मतदान करनेए जुलूस एवं रैलियाँ निकालने एवं पार्टी कार्यालय को सहयोग प्रदान करने तक सीमित रह जाती है। (देसाई एवं ठक्कर, 2001)

महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में महिला आरक्षण विधेयककी आवश्यकता एवं चुनौतियाँ

1990 में महिला समूहों द्वारा निर्वाचित निकायों के भीतर महिलाओं के लिए आरक्षण की माँग जोर शोर से उठाई जाने लगी। 19201930 के दशक में यह माँग पहली बार उठाई गई थी और 1970 में जब महिलाओं की राजनीतिक स्थिति पर सी एस डब्लू आई (CSWI) द्वारा परीक्षण/जाँच की जा रही थी तब इस पर पुनर्विचार किया गया। सी एस डब्लू आई (CSWI) द्वारा इस रिपोर्ट को टूवार्डस इक्वलिटिके नाम से प्रकाशित किया गया जिसमें महिलाओं के राजनीतिक निकायों के भीतर अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर ध्यान खींचा गया। हालांकि समिति संसद में महिला आरक्षण के मुद्दे पर सहमत नही थी और इसे नकार भी दिया था। लेकिन समिति के तीन सदस्य लोतिका सरकार, नीरा डोगरा एवं वीना मजूमदार इस निर्णय से सहमत नही थे। उनका मानना था कि समिति सांस्थानिक तरीके से सांस्थानिक असमानताओं को हटाने या कम करने की आवश्यकता को नजरअंदाज कर रही है जिसे कि पिछले पच्चीस सालों में वयस्क मताधिकार भी दूर करने में असफल रहा है। हालांकि इसी समिति द्वारा पंचायतों के स्तर पर महिलाओं को 1/3 आरक्षण दिये जाने कि एकमत से सिफारिश की गई थी। (रॉय, 2010)

असल में ये पहली बार नही था जब महिलाओं के आरक्षण के मुद्दे पर एक राय नही बन पाईं। जब भारत की संविधान सभा में महिला आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा की गई थी तब भी 15 निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन नहीं किया था। इसकी वजह ये थी कि महिला प्रतिनिधियों का मानना था कि समय के साथ जब भारतीय लोकतंत्र परिपक्व होगा तब महिलाओं का प्रतिनिधित्व स्वतः ही बढ़ जायेगा। लेकिन दुर्भाग्यवश आजादी के 70 साल बीत जाने के बावजूद महिलाओं का प्रतिनिधित्व अपेक्षाकृत अत्यन्त कम है। (तबब्सुम 2023) 1952 में जब पहली लोकसभा का गठन हुआ था तब कुल संसद सदस्यों की संख्या 489 थी जबकि उसमें कुल 24 महिलाएँ थी अर्थात कुल सदस्य संख्या का 5% थी। वर्तमान लोकसभा में महिलाओं की संख्या अब तक कि सर्वाधिक 78 है जो कि कुल सदस्य संख्या का 14.36% है।

महिला आरक्षण बिल की आवश्यकता को समझने के लिए चुनाव आयोग की बेबसाइट पर मौजूद आंकड़े का बारीकी से विश्लेषण किया जाना चाहिए जो मौजूदा दौर में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर बेहतरीन ढंग से प्रकाश डालता है। 2009 में 15वें लोक सभा चुनाव में कुल 8070 उम्मीदवार खड़े थे जिनमें 556 महिलाएँ थी और कुल 59 महिलाएँ चुनाव जीती जो कुल सदस्य संख्या का 10.86% था। 2014 में 16वीं लोकसभा चुनाव में कुल 668 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लडा़ जिसमें से 62 ने चुनाव जीता जो कुल सदस्य संख्या का 11.41% था। यह पिछले चुनाव की तुलना में मामूली बढ़त को प्रदर्शित करता है। 2019 में 17वें लोकसभा चुनाव के दौरान कुल 726 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लडा़ जिसमें से 78 ने चुनाव जीता। यह कुल सदस्य संख्या का 14.36% था जो पिछले लोकसभा चुनाव से 2.95% ज्यादा था। (ECI website)

इसी प्रकार यदि निर्दलीय रुप से चुनाव लड़ने वाली महिलाओं के आंकड़ों पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि वर्ष 2009 के 15वें लोकसभा चुनाव में 207 महिलाओं ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और उनमें से किसी को जीत हासिल नही हुई। यहाँ तक कि 205 उम्मीदवारों की ( 99.03%) जमानत जब्त हो गई। 2014 के 16वें लोकसभा चुनाव के दौरान 206 महिला उम्मीदवारों ने निर्दलीय रुप से चुनाव लड़ा और वे सभी न केवल चुनाव हार गई बल्कि उनकी जमानत भी जब्त हो गई। 17वें लोकसभा चुनाव के दौरान वर्ष 2019 में 226 महिलाओं ने निर्दलीय रुप से चुनाव लड़ा जिसमें से केवल 2 ने चुनाव जीता बाकि 224 महिलाओं की जमानत जब्त हो गई। (ECI website) महिलाओं का प्रतिनिधित्व राज्य विधानसभाओं में भी अच्छा नही रहा है। 31 राज्यों/संघ क्षेत्रों में से केवल 10 राज्य/संघ क्षेत्र ऐसे है जहाँ महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10% से ज्यादा है। दक्षिणी राज्यों में आन्ध्र प्रदेश में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सर्वाधिक 8% है। जबकि पुडुचेरी में न्यूनतम 3.33% है। उत्तर पूर्व क्षेत्र में त्रिपुरा में सर्वाधिक 10% है जबकि मिजोरम में कोई महिला विधायक नहीं है। नागालैण्ड एक ऐसा राज्य है जिसने 1963 में राज्य का दर्जा प्राप्त किया था और यहाँ वर्ष 2023 के विधानसभा चुनाव में पहली बार दो महिलाओं ने (एनडीपीपी दल से) निर्वाचन में जीत हासिल कर विधानसभा में स्थान प्राप्त किया है। (तब्बसुम, 2023)

उपरोक्त आंकड़ों से ये स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी उस स्थिति में नही है जिसे बेहतर कहा जा सके। इस वजह से बहुत से महिला संगठनों ने संसद व विधानसभा में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण की माँग जोर शोर से उठानी शुरु कर दी। अतएव इस माँग का प्रतिफल प्रथम बार वर्ष 1996 में सामने आया जब इस संबंध में विधेयक प्रस्तुत किया गया। लेकिन बहुत सारे राजनीतिक दलों ने विधेयक में ओबीसी एवं अल्पसंख्यकों के लिए कोई प्रावधान न होने के कारण विधेयक का विरोध किया। (देसाई एण्ड ठक्कर, 2001) इसके अतिरिक्त यह भी चिन्ता थी कि आरक्षण महिलाओं को एक जातीय समूह (Homogenous group) के रूप में देखेगा फलतः इस बात की संभावना है कि उच्च जाति की उच्च वर्ग की पढ़ी लिखी बीबी ब्रिगेडही निर्वाचित होकर संसद व विधानसभाओं में पहुँचेगी क्योंकि विधेयक ओबीसी के लिए कोटा के भीतर कोटा की बात नही करता है। (बासु, 2010)

1998 में विधेयक दोबारा प्रस्तुत किया गया। समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय जनता दल के सदस्यों ने विधेयक का विरोध किया एवं सदन के स्थगित हो जाने के कारण बिल पास नहीं हो सका। 1999 में सरकार ने विधेयक को प्रस्तुत करने में तो सफलता प्राप्त कर ली लेकिन कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। वर्ष 2008 में 108 वें संवैधानिक संशोधन के रूप में यू पी ए वन द्वारा महिला आरक्षण विधेयक को पुनः प्रस्तुत किया गया जो कि मार्च 2010 में राज्यसभा द्वारा पारित भी हो गया। लेकिन लोकसभा में मतभेदों के चलते यह विधेयक 15वें लोकसभा के भंग होने के साथ व्यपगत हो गया। (तब्बसुम, 2023) ये विचारणीय प्रश्न है कि आखिर वे कौन से कारण है जिनके लिए महिला आरक्षण बिल का इतने वर्षों से विरोध किया जा रहा है। ये सच है कि कोटा के भीतर कोटा की माँग इनमें प्रमुख है पर इस बिन्दु पर गहराई से विचार करना आवश्यक है कि क्या यही एक मात्र वजह है ?

महिलाओं की स्थिति पर बनी समिति (CSWI) द्वारा अपनी रिपोर्ट टूवार्डस इक्वलिटिमें इस वजह पर प्रकाश डाला गया है। समिति अपनी रिपोर्ट में लिखती है कि भारत में प्रगतिवादी तत्वों द्वारा चाहे वह महिला हो या पुरुष सदैव महिला हितों का समर्थन किया गया है। लेकिन इस विधेयक को स्वीकार करने से हो सकता है कि महिलाओं का दृष्टिकोण पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के कारण संकीर्ण/संकुचित हो जाए एवं इस तरह का उठाया गया कदम अन्य समुदायों को भी ऐसी माँगे रखने के लिए प्रोत्साहित करेगा जो राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा होगा। असल में महिलाओं के हित दूसरें समूहों, स्तरों व वर्गों के हितों से अलग नहीं किए जा सकते है। महिलाएँ कोई समुदाय नही है जो किसी खास क्षेेत्र अथवा गतिविधि तक सीमित हो बल्कि वे एक कैटेगरी है। (देसाई एण्ड ठक्कर, 2001)

बहुत से विद्वान ये मानते है कि सीटों के आरक्षण से लैंगिक भेदभाव की समस्या का हल नहीं होगा बल्कि आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनने से होगा। मानुषीकी मधु किश्वर का मानना है कि एक वैकल्पिक आरक्षण विधेयक लाना होगा जिसमें सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल महिला प्रतिनिधियों को आवश्यक कोटाप्रदान करेंगे। ये निश्चित रूप से स्थिति में बदलाव लाएगा। एक आवश्यक बात जो सोचने को विवश करती है कि पंचायतों व नगरपालिका स्तर पर महिला आरक्षण को लेकर इतना विवाद नहीं हुआ जितना विधानसभा व संसद के स्तर पर हो रहा है। यहाँ तक कि कुछ राज्यों ने  पंचायत स्तर पर 50% से ज्यादा आरक्षण दिया है और इसी का परिणाम है कि स्थानीय स्तर पर 15 लाख निर्वाचित महिला प्रतिनिधि कार्य कर रहे है। (तब्बसुम, 2023)

नारी शक्ति वंदन अधिनियम- महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में एक सशक्त प्रयास

वर्ष 2023 में 106वें संवैधानिक संशोधन अथवा नारी शक्ति वंदन अधिनियम अथवा महिला आरक्षण बिल, 2023  के दोनों सदनो से पारित किये जाने के बाद लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटों के आरक्षण का मार्ग प्रशस्त हो गया। ये भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अद्भुत क्षण बन गया। इसके अन्तर्गत मुख्य रुप से प्रावधान किया गया है-

1. महिलाओं के लिए दिल्ली सहित देश के सभी राज्यों की विधानसभाओं में 1/3 सीटें आरक्षित रहेगी।

2. महिलाओं के लिए लोकसभा में 1/3 सीटें आरक्षित रहेगी।

3. महिलाओं के लिए लोकसभा व राज्यों की विधानसभा में आरक्षित सीटों में से 1/3 सीटें एससी व एसटी के लिए आरक्षित रहेगी। (सेन, 2023)

4. यह विधेयक परिसीमन के बाद ही लागू होगा और यह परिसीमन जनगणना के बाद ही किया जा सकता है। इसका प्रभावी अर्थ यह है कि विधेयक कम से कम 2027 तक कानून नही बन सकता है।

हालांकि इस विधेयक का पारित होना लोकतंत्र में आधी आबादी के राजनीतिक सहभागिताको बढ़ाने में सहयोग करेगा लेकिन इसके समक्ष चुनौतियाँ भी है। सबसे पहली चुनौती इस विधेयक के साथ भी वही है जो पूर्व के अन्य विधेयकों के साथ थी। अन्य पिछड़ा वर्ग‘ (OBC) के लिए आरक्षण का प्रावधान भारतीय संविधान के तहत न तो संसद में है और न ही राज्य विधानसभाओं में जबकि इसकी माँग हमेशा से होती रही है। असल में ये कहा जाता है कि लैंगिक न्याय के साथ सामाजिक न्याय प्रदान करना भी जरूरी है इसलिए अपर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त ओबीसी व अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जाना चाहिए। इस हेतु एक उपाय यह हो सकता है कि जिस प्रकार अनुच्छेद 243 (D) एवं 243 (T) के माध्यम से धारा (6) का प्रावधान करके राज्य विधानसभाओं को पंचायतों एवं नगर निगमों में पिछड़े वर्गों के पक्ष में सीटों को आरक्षित करने का अधिकार दिया गया है उसी प्रकार नारी शक्ति वंदन अधिनियमए 2023 में ऐसा प्रावधान किया जा सकता है। (तब्बसुम, 2023)

इसके अतिरिक्त एक अन्य उपाय यह भी हो सकता है कि जो राजनीतिक दल ओबीसी व अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए कोटा के अन्दर कोटा की माँग कर रहे है वे आने वाले चुनावों में इस वर्ग की महिलाओं को टिकट दे सकते है। वे बीजद (BJD) पार्टी व आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस (AITC) पार्टी का अनुकरण कर सकते है जिन्होनें वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी संसदीय सीटों का क्रमशः 33% व 40.47% महिला उम्मीदवारों के लिए सुरक्षित रखा था। (BI India Bureau, 2019) परिसीमन भी इस विधेयक के लिए एक चुनौती है। अगर जनगणना की प्रक्रिया अगले दो सालों में पूरी हो पाती है और उसके बाद परिसीमन भी पूरा हो जाता है तब ही 2029 में सदन में महिला सदस्यों की बड़ी संख्या देखने को मिल सकती है। साथ ही परिसीमन भी अपने आप में चुनौती है क्योंकि ज्यादा आबादी, ज्यादा सीटों के फार्मूले पर दक्षिण के राज्यों को आपत्ति हो सकती है। दक्षिण भारत में शिक्षा और परिवार नियोजन अपनाने के बाद आबादी पर नियंत्रण हुआ है इसलिए उन्हें इस प्रक्रिया से आपत्ति हो सकती है। (मिर्जा, 2023)

निष्कर्ष

ये सही है कि समय के साथ धीरे-धीरे भारतीय संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। बहुत सारी चुनौतियों का सामना करते हुए बहुत सारी महिलाओं ने इस महत्वपूर्ण सदन में स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की है परन्तु वर्तमान समय में ये अपर्याप्त है। नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 इस अपर्याप्तता को समाप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। इसके पारित होने से न केवल भारतीय लोकतंत्र की मजबूती में वृद्धि हुई है बल्कि महिलाओं की निर्णय निर्माण प्रक्रिया में बढ़ी हुई भागीदारी से शासन को भी सर्वोत्तम स्वरुप देने में आसानी होगी। यह सतत विकास लक्ष्य-5 की प्राप्ति में भी सहयोग करेगा जो लैंगिक समानता के विषय में है। राजनीतिज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता राममनोहर लोहिया ने कहा था कि जितने भी आधार है समाज में गैर बराबरी और नाइंसाफी के उनमें यह चट्टान सबसे बड़ी है- मर्द औरत के बीच की गैर बराबरी। ये विधेयक राजनीतिक रूप से उस गैर बराबरी को पाटने की दिशा में बेहतर शुरुआत है जिसके परिणाम आने वाले समय में सामाजिकए आर्थिक व अन्य क्षेत्रों में भी दृष्टिगोचर होंगे।

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