ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- VIII November  - 2024
Anthology The Research

चन्द्रकान्त देवताले की कविताओं में मानवीय संवेदना

Human sensitivity in Chandrakant Deotale poems
Paper Id :  19434   Submission Date :  2024-11-04   Acceptance Date :  2024-11-22   Publication Date :  2024-11-25
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DOI:10.5281/zenodo.14472513
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अमित कल्याण
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय,
बीकानेर, राजस्थान, भारत
मीनाक्षी चौधरी
सह-आचार्य
हिन्दी विभाग
राजकीय डूँगर महाविद्यालय
बीकानेर, राजस्थान, भारत
सारांश

चन्द्रकान्त देवताले हिन्दी समकालीन कविता के एक सशक्त कवि माने जाते हैं। मनुष्यधरतीपर्यावरण और समकालीन परिस्थितियाँ उनके काव्य के प्रमुख विषय रहे हैं। वे कहते हैं कि एक सामान्य मानव इन्हीं परिस्थितियों के आलोक में जीवित रहा है। देवताले जी ने स्वयं साधारण एवं सामान्य जीवन व्यतीत किया जिसके प्रभाव से उनकी कविताओं में आमजन की पीड़ा और संवेदना उभरकर आते हैं। देवताले जी का जब जन्म हुआ तब विश्व दो घावों से जूझ रहा था - पहला वैश्विक आर्थिक मंदीदूसरा द्वितीय विश्व युद्ध। देवताले इन परिस्थितियों को सिर्फ देख सुन ही नहीं रहे थे बल्कि नजदीक से महसूस कर रहे थे। इसलिए बचपन से ही उनमें सामान्य मानव की पीड़ा के प्रति एक सहज संवेदना का विकास हो गया। वे आमजन की संवेदना को स्वः वेदना के स्तर पर महसूस करते थे। इसीलिए देवताले जी ने साधारण जनता की वेदना और निराशा का यथार्थ चित्रण अपनी कविताओं में किया है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Chandrakant Deotale is considered a powerful poet of contemporary Hindi poetry. Man, earth, environment and contemporary circumstances have been the main themes of his poetry. He says that a common man has lived in the light of these circumstances. Deotale ji himself lived a simple and ordinary life, due to which the pain and sympathy of the common man emerge in his poems. When Deotale ji was born, the world was struggling with two wounds - first global economic recession, second World War II. Deotale was not only seeing and hearing these circumstances but was also feeling them closely. Therefore, from childhood itself, he developed a natural sympathy towards the pain of the common man. He used to feel the sympathy of the common man at the level of his own pain. That is why Deotale ji has realistically depicted the pain and despair of the common people in his poems.
मुख्य शब्द समकालीन कविता, मनुष्य, धरती, पर्यावरण, आमजन की पीड़ा, संवेदना, वैश्विक आर्थिक मंदी, विश्व युद्ध।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Contemporary Poetry, Man, Earth, Environment, Suffering Of Common People, Sympathy, Global Economic Recession, World War.
प्रस्तावना

चन्द्रकान्त देवताले ने देशसमाज से जुड़ी हुई समस्याओं पर अपनी कविताओं के माध्यम से व्यंग्यात्मक प्रकाश डाला है। इन्होंने आम आदमी से जुड़ी हुई प्रत्येक परिस्थिति का अपनी कविताओं में जिक्र किया हैजैसे स्त्रियों एवं बच्चों पर हो रहे अत्याचारआम आदमी एवं अपराधियों के लिए न्याय व्यवस्था का चित्रणदलित एवं कमजोर वर्ग का उत्पीड़नदेश के मूल निवासियों की वास्तविक स्थिति का चित्रणसरकारी कार्यालयों में हो रहे भ्रष्टाचार इत्यादि।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य चन्द्रकान्त देवताले की कविताओं में मानवीय संवेदना का अध्ययन करना है

साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों और पत्रिकाओं का अध्ययन किया गया है

मुख्य पाठ

वर्तमान में देश में अपराध दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं। आम आदमी इन सबसे डरा हुआ रहता है। बदमाश लोग डरे हुए इन्सान को और ज्यादा डराकर इसका फायदा उठाते हैं। देवताले ने अपनी कविता माफिया सरगने की गोपनीय हिदायतेंमें इसी बात का चित्रण करते हुए कहा है कि माफिया लोग आम आदमी के मन में डर पैदा करना चाहता है, वे लोगों को अमन-चैन से नहीं रहने देना चाहते, लोगों की सुरक्षित मानसिकता उन्हें अपनी सबसे बड़ी दुश्मन लगती है। अशांति फैलाने वाले लोगों की सोच यह है कि हमारे द्वारा फैलाई गई आग घरों और इंसानों तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि आम-आदमी की सोच, सपनों और नींद तक पर भी हमला होना चाहिए -

होना यह चाहिए कि लोग कुछ भी तय न कर पाएं

असमंजस, अटकलें, अफवाह से बस्ती और बाज़ार ही नहीं

आदमी के भीतर का चप्पा-चप्पा गर्म रहे

असल मकसद है डर पैदा करना

फिर आग अपने करतब खुद दिखाएगी।“[1]

अपने से ताकतवार लोगों द्वारा सताया हुआ आदमी न्याय प्राप्त करने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते थक जाता है। आम जनता को न्याय दिलाने और खुशहाल बनाने का कार्य करने वालों का चरित्र बिक रहा है अर्थात् न्यायिक व्यवस्था में जो पदाधिकारी है - वकील, थानेदार, सिपाही, जज, मुंशी ये सभी अपना कार्य ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं अर्थात् न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार फैला हुआ है। देवताले ने अपनी कविता कौन सम्मन जारी करेगामें इसी बात का जिक्र किया है कि जो अपराधी हैं वे खुलेआम घूम रहे हैं उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो रही ना ही उनको कोई सम्मन जारी किया जा रहा है क्योंकि हमें न्याय देने वाले गूंगे बहरे हो गए हैं -

मृतात्माएँ यदि कर सकतीं

तो जरूर करती जारी सम्मन कई-कई चीजों के लिए

जो सम्भव होता पहुँच सकना मृतकों के न्यायालय में

निस्संदेह मिलता हमें न्याय।“[2]

कवि ने देश की न्याय व्यवस्था पर चिंता प्रकट करते हुए कहा है कि आम आदमी को न्याय मिलने से पहले ही फाँसीघरों में अपराधियों को बचाने के लिए प्रार्थनाएँ शुरू हो जाती हैं। अपने देश की न्याय व्यवस्था की सीढ़ियों से होते हुए जब तक न्याय मिलने के अंतिम चरण तक पहुँचते हैं उससे पहले ही जासूसी हो जाती है। चन्द्रकान्त देवताले ने अपनी कविता मुखबिर हो जाती खुद की परछाईके माध्यम से देश की कानून व्यवस्था पर प्रहार किया है। कवि कहते हैं कि अपराध करने वालों का पता रहता है लेकिन सबूतों के अभाव में अपराध सिद्ध नहीं हो पाता जो हत्यारे और डकैत हैं वे बच जाते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को अपराधी ठहरा दिया जाता है। कवि आम-आदमी के साथ हो रहे अत्याचार से चिंतित है वे भारत देश को सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बुद्ध और गांधी का देश मानते हैं जहाँ पर वर्तमान में हिंसा और अपराध बढ़ रहे हैं -

बस इसी बीच..... इसी बीच

हो जाती डकैती

कट चुकती जब, गरदन, आत्मा तक

और हत्यारे छोड़ जाते जो कुछ सबूत

उनसे होती शिनाख्त

गोया बुद्ध-गांधी आये थे यहाँ।“[3]

चन्द्रकान्त देवताले ने अपने काव्य में आरम्भ से ही आमजन की पीड़ा का वास्तविक चित्रण किया है। इसी क्रम में उन्होंने देश के मूल निवासी जो वर्तमान में अन्य क्षेत्रों से अलग-थलग हैं जहाँ पर मूल सुविधाएँ - शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार आदि का अभाव है। इन सभी का चित्रण अपनी कविता इधर मत आना.... यही काटी गाँव हैमें किया है। कवि काटी गाँव के बारे में बताते हुए देश के मूल निवासियों की जिन्दगी पर प्रकाश डाला है जो आदिवासी कहलाए जाते हैं जो सुविधाओं के अभाव में घास की रोटी खाने को मजबूर हैं। जहाँ पर पहुँच कर कोई भी जन प्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी उनकी सुध नहीं लेता और कोई प्राकृतिक विपदा आने पर वायुयानों द्वारा ही उनका जायजा लेते हैं और उन्हीं से उनकी राहत के लिए खाने का सामान गिरा देते हैं, जो उन लोगों तक पहुँच भी नहीं पाता -

जो होता बाढ़-भूकम्प जैसा इलाका कोई

जो आते पुष्पक विमानों से राहत की पोटली

टपका जाते भाग्य विधाता

पर मुद्दत हुई काटी गाँव में दर्शन देने

नहीं आया है अन्न का एक भी दाना।“[4]

देवताले मूल निवासियों की अभाव की जिन्दगी का चित्रण करते हुए कहते हैं कि ये किसी बड़े राजा-महाराजा के वंशज नहीं है ना ही ये कोई खिताब पाने के लिए भी दिखावा नहीं कर रहे बल्कि भूख के कारण घास-फूस खाने को मजबूर हैं।

जब देश में कोई विदेशी नेता आता है तो हमारे प्रधान नेताओं द्वारा ऐसे गाँवों की झाँकी दिखाई जाती है इनका यश, गुणगान किया जाता है लेकिन इनकी वास्तविक स्थिति नहीं बताई जाती।

देवताले जी की कविता दुखड़ों की सिसकती दास्तानमें सागरपैसा गाँवनामक गाँव का चित्रण किया गया है जिनमें नाम के विपरीत सुख-सुविधाएँ हैं। सागरपैसा गाँवदेश की राजधानी से कुछ मील की दूरी पर है पर वहाँ इक्कीसवीं सदी और शाइनिंग इण्डिया जैसा कुछ नहीं है और यहाँ के निवासियों की जिन्दगी बेहाल है और आम-आदमी की मूल आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पाती। यथा -

बिजली तो बिजली पर पानी.....

पानी लाने भी एक-डेढ़ कोस जाने को मजबूर

सागरपैसा गाँवकी औरतें।“[5]

चन्द्रकान्त देवताले की कविताओं में न्याय-समता का स्वर मुखरित है। कथ्य के स्तर पर उनकी कविताओं में आम-आदमी की पीड़ा मुख्य रूप से उभरती है। वे व्यवस्था की विसंगतियों के विरुद्ध प्रश्न उठाते हैं और उसका समाधान भी बताते हुए चलते हैं। मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों के ह्रास, लोगों की स्वार्थी प्रवृत्ति, परिवारों का विघटन, आर्थिक विषमता, समाज में ऊँच-नीच आदि समस्याओं का सामना करते हुए देवताले जी का रचना संसार मानवता को उसके समूचेपन के साथ सहेज लेना चाहता है। अपनी दैनिक आवश्यकताओं से भी वंचित रहने वाले आम-आदमी को देवताले समाज में फैली विषमता पर प्रश्न करने को कहते हैं, यथा -

आदमी को प्रश्न करना हीे होगा अब

करोड़ों आदमियों से

करोड़ों आदमियों को अपने से सबसे

क्यों आदमी आदमी नहीं रह पाता है

वे कौनसी चीजें है और किनके पास

और क्यों सिर्फ उन्हीं के पास

जो आदमी को उसकी जड़ों से काटकर

कुछ और बना देती है।“[6]

वर्तमान में सामान्य आदमी की दुर्घटनावश अकाल मृत्यु होने पर सरकार द्वारा सांत्वना के रूप में एक माह का राशन मुआवजे के रूप में आँका जाना कवि को बहुत अखरता है। और नेपथ्य में लकड़बग्घा व्यवस्था की विकृत डरा देने वाली हँसी हँसता है।

एक माह का मुफ्त राशन

तीस दिन दोनों जून

बिन चुकाएं भकोस लेंगे तेरह चार

और देश के नामि-केन्द्र में

गाँवों की सरहदों के पास।“[7]

अमीर बच्चों और आम आदमी के बच्चों के साथ हो रहा भेदभाव कवि की चिंता बढ़ा देता है। इन्होंने अपनी कविता थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चेमें इस भेदभाव का वर्णन करते हुए लिखा है -

सिर्फ कुछ बच्चों के लिए

एक आकर्षक स्कूल

और प्रसनन पोशाकें हैं

बाकी बच्चों का हुजूम

टपरों के नसीब में उलझ गया है।“[8]

गरीब परिवारों के बच्चों का शोषण किया जा रहा है उनसे बाल मजदूरी करवायी जाती है और समाचार पत्रों, मीडिया में भी अमीर बच्चों के फोटो दिखाए जाते हैं, वास्तविकता नहीं दिखाई जाती, यथा -

अखबार के चेहरे पर जिस वक्त

तीन बच्चे आइसक्रीम खाते हँस रहे हैं

उसी वक्त बीस पैसे में सामान ढोने के लिए

लुका-छिपी करते बच्चों के पुट्ठों पर

पुलिस वालों की बेंतें उमच रही हैं।“[9]

इस प्रकार देवताले जी ने आम आदमी एवं बच्चों के साथ हो रहे अत्याचार और भेदभाव का चित्रण बहुत ही आकर्षक तरीके से किया है जिसको पढ़कर पाठक संवेदनशील हो उठता है।

सामाजिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों पर कविता रचने के साथ-साथ देवताले ने स्त्रियों की संवेदना को भी काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। औरतनामक शीर्षक कविता में कवि ने स्त्रियों द्वारा अपने परिवार और बच्चों के प्रति त्याग के बारे में बताया है जो वे शताब्दियों से करती आ रही हैं। इसी क्रम में कवि लिखते हैं कि -

एक औरत अनन्त पृथ्वी को

अपने स्तनों में समेटे

दूध के झरने बहा रही है,

एक औरत अपने सिर पर

घास का गट्ठर रखे

कब से धरती को

नापती ही जा रही है।“[10]

'लकड़बग्घा हँस रहा हैकाव्य संग्रह की कविता इस पठार परमें कवि ने मजबूर एवं गरीब औरतों की दरिद्रता का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है जो अपने परिवार की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए पति की उपस्थिति में पत्नी देह विक्रय के लिए तैयार होती हैं। इस क्रम में कवि लिखते हैं -

अफीम के खेतों के इलाके में बाँछेड़ औरतें

अपने बोदे पतियों की मौजूदगी में

देह का धन्धा करती हैं

और बीड़ी के लिए माचिस माँगने के बहाने

मर्द धुंधलके में डूबी सड़कों पर

अपनी औरतों के लिए पानी के भाव

ग्राहक ढूँढ़ते हैं।“[11]

कवि द्वारा लिखी गई ये कविताएँ सामान्य जनता की वेदनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं और पाठकों को इनकी स्थिति पर सोचने को मजबूर कर देती है। देवताले जी ने स्त्री के हर रूप पर कविता लिखी है। इसी क्रम में कवि ने अपनी माँ को याद करते हुए एक कविता लिखी यमराज की दिशा। कवि जब छोटे थे तो उनकी माँ दक्षिण दिशा को यमराज की दिशा बताती थी और दक्षिण में पैर करके सोने से मना करती थी। कवि कहते हैं कि माँ अब नहीं है दक्षिण दिशा भी यमराज की दिशा नहीं रही। कवि कहते हैं कि अब तो सभी दिशाओं में यमराज खड़े हैं जो कमजोर इन्सान को लील जाना चाहते हैं। इसी क्रम में कवि लिखते हैं कि -

पर आज जिधर पैर करके सोओ

वही दक्षिण दिशा हो जाती है

सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं

और वे सभी में एक साथ

अपनी दहकती आँखों सहित विराजते हैं।“[12]

इस प्रकार कवि ने अपने काव्य में स्त्री के सभी रूपों, पत्नी, माँ, पुत्री को अभिव्यक्ति प्रदान की है और उनके प्रति अपने हृदय में उपजी संवेदना का चित्रण किया है।

निष्कर्ष

देवताले जी ने अपनी कविताओं में कल्पना की बजाय वास्तविकता को प्रधानता दी और आम जीवन की समस्याओं को उठाया। देवताले जी एक संवेदनशील कवि है और संवेदनशील कवि जागरूकता के साथ अपने समय की परिस्थितियों का मूल्यांकन करता है। कवि ने देश में बढ़ रहे अपराध पर चिन्ता व्यक्त की है। अपराधियों द्वारा बेकसूर आदमी को सताया जा रहा है और अपराधी दोषी होते हुए भी धन-बल के जोर से सजा पाने से बच जाते हैं। गरीब, कमजोर आदमी अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में पिसता जा रहा है। शहरों से दूर प्रकृति के बीच रहने वाले मूल निवासी जिनको आम भाषा में आदिवासी कहा जाता है उनको अभी तक मूल सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हो पाई हैं, इस पर कवि ने संवेदना व्यक्त की है। आम-आदमी, गरीब बच्चों और बेबस औरतों पर भी कवि ने लेखनी चलाते हुए उनका चित्रण अपनी कविताओं में किया है। इस प्रकार कवि ने हर लाचार बेबस वर्ग के लिए संवेदनात्मक अभिव्यक्ति अपनी कविताओं में प्रकट की है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. उजाड़ में संग्रहालय, चन्द्रकान्त देवताले, पृ. 73
  2. वही, पृ. 14
  3. खुद पर निगरानी का वक्त, चन्द्रकान्त देवताले, पृ. 63-64
  4. वही, पृ. 73
  5. वही, पृ. 75
  6. उसके सपने, चन्द्रकान्त देवताले, पृ. 82
  7. लकड़बग्घा हँस रहा है, चन्द्रकान्त देवताले, पृ. 67
  8. वही, पृ. 78
  9. वही, पृ. 79
  10. वही, पृ. 9-10
  11. वही, पृ. 28
  12. पत्थर की बैंच, चन्द्रकान्त देवताले, पृ. 53