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हिन्दी आत्मकथाओं में स्त्री चेतना |
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Women Consciousness in Hindi Autobiographies | |||||||
Paper Id :
19399 Submission Date :
2024-11-14 Acceptance Date :
2024-11-23 Publication Date :
2024-11-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14378682 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
‘‘आत्मनः विषये कथ्यते यस्मां सा आत्मकथा।’’[1] अर्थात् जब किसी व्यक्ति के द्वारा स्वयं के संबंध में कोई बात कही जाए वही आत्मकथा
है। आत्मकथा शब्द दो शब्दों ‘आत्मकथा’ के योग से बना है। आत्म से तात्पर्य ‘निजता’ और कथा से तात्पर्य ‘वर्णन, कहानी’। इस प्रकार आत्मकथा वह कथानक
है जिसमें व्यक्ति अपनी अनुभूतियों को पाठक के समक्ष रखता है। आत्मकथा शब्द
अंग्रेजी के ‘ऑटोबायोग्राफी’ का हिन्दी रूपान्तरण है। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | "Atmanah vishaye kathyat yasma sa aatmakta."[1] That is, when a person says something about himself, it is an autobiography. The word autobiography is made up of two words 'atma katha'. Atma means 'personality' and katha means 'description, story'. Thus, an autobiography is a story in which a person presents his experiences to the reader. The word autobiography is the Hindi version of the English word 'autobiography'. | ||||||
मुख्य शब्द | आत्मकथा, कथानक, कहानी, स्त्री चेतना। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Autobiography, Plot, Story, Women Consciousness. | ||||||
प्रस्तावना | ‘आत्मकथा’ हिन्दी साहित्य की एक नवीन विधा है, जिसने व्यक्तिगत आत्मानुभूति को एक नवीन चेतना प्रदान की। इस प्रकार आत्मकथा व्यक्ति का भोगा हुआ वह यथार्थ वर्णन है जिसे आत्मकथानक के रूप में पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। ‘जीवनचरितस्यैव प्रकार विशेष आत्मकथा’[2] जीवन में घटित किसी भी अनुभूति और अनुभव का लेखन ही आत्मकथा है। कई बार आत्मकथा का कथानक कुछ ऐसा होता है जिसे व्यक्ति ने अनुभव किया होता है किन्तु वह उस अनुभव को सम्मुख विशेष से साझा कर पाने में असमर्थ होने के कारण कहानी के रूप में जन सामान्य को उससे रूबरू कराता है। ‘‘आत्मकथा वस्तुतः रहस्य के प्रकाशन के लिए लिखी जाती है।.... व्यक्ति का जो स्वरूप सामान्यतया, साधारणतया समाज के सामने नहीं आता उसे लाना ही आत्मकथा का प्रयोजन है।’’[3] |
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य हिन्दी
आत्मकथाओं में स्त्री चेतना का अध्ययन करना है । |
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साहित्यावलोकन | प्रस्तुत शोधपत्र के लिए विभिन्न पुस्तकों
और आत्मकथाओ का अध्ययन किया गया है जिसे इस शोधपत्र के मुख्य भाग में वर्निंत किया
गया है। |
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मुख्य पाठ |
हमारा समाज विभिन्न वर्गों और लिंगों में विभक्त है। जो एक तरफ तो समाज के स्वरूप का निर्धारण करते हैं वहीं दूसरी तरफ समाज की विभेदक रीतियों से संपोषित भी रहते हैं। उदाहरण के लिए दलित वर्ग, स्त्री वर्ग, किन्नर वर्ग, वृद्ध वर्ग आदि। ये सभी वर्ग समाज के वे वर्ग हैं जिनका जीवन अपने आप में एक चुनौती है। अपनी इसी चुनौती को स्वीकार करते हुए उपर्युक्त विभिन्न वर्गों ने अपनी संवेदनाओं को लेखन के माध्यम से जन सामान्य तक पहुँचाने का कार्य किया है। उपर्युक्त वर्गों में स्त्री वर्ग एवं दलित वर्ग की चेतना का स्वर हिन्दी साहित्य की आत्मकथा विधा के रूप में प्रखर रूप से मुखरित हुआ। इनमें भी स्त्री चेतना की ध्वनि आत्मकथा विधा के रूप में गूँजायमान है। स्त्री आत्मकथाएँ स्त्री के आन्तरिक व्यक्ति चित्रण को उजागर करने वाली श्रेष्ठ रचनाएँ हैं। पंजाब की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम द्वारा लिखी गयी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ समुचे स्त्री आत्मकथा साहित्य की अग्रपांक्तेय रचना है। जिसमें नारी चेतना एवं उसके खुले विवरण का स्पष्ट उदाहरण देखने को मिलता है। अमृता अत्यन्त बेबाकी से रसीदी टिकट में अपने प्रेमी इमरोज से कहती है, ‘‘तुम मुझे इस संध्या बेला में क्यों मिले? जिन्दगी का सफर खत्म होने वाला है। तुम्हें मिलना था तो जिन्दगी की दोपहर के समय मिलते, उस दोपहर का सेंक तो देख लेते।’’[4] चेतना शब्द संस्कृत और हिन्दी साहित्य में भारतीय दर्शनशास्त्र से लिया गया है। अनेक विद्वानों के अनुसार ‘‘चेतना का सम्बन्ध प्राणी जगत के सर्वोच्च रूप मानव की आन्तरिक शक्ति- ‘चित्त या चित्’ से है।[5] चेतना मानव को बाह्य जगत में घटित तमाम घटनाओं के प्रति सजग करती है। मानव जाति का विकास इसी चेतना का प्रमाण है। चेतना मानव मस्तिष्क का एक विशेष गुण है, जो वैश्विक स्तर पर हो रही सभी गतिविधियों, क्रियाकलापों का बोध करवाती है। चेतना को स्पष्ट करते हुए अर्चना जैन लिखती हैं- ‘‘इस गुण धर्म द्वारा हमें आस पास की घटनाओं का बोध प्राप्त होता है और हम विश्व को जान पाते हैं। अतः चेतना के लिए न केवल मस्तिष्क अपितु पदार्थ अथवा वस्तुओं का होना भी आवश्यक है, जो मस्तिष्क पर प्रभाव डालते हैं।’’[6] चेतना के लिए अंग्रेजी में अवेयरनेस (Awareness) शब्द का प्रयोग किया जाता है। वृहत अंग्रेजी शब्द कोश में शब्द का अर्थ सचेत, सतर्क, जागरूक, सावधान करने वाला, सतर्कता, चेतना इत्यादि प्रयोग किया जाता है। चेतना शब्द का गहरा सम्बन्ध ‘आत्मा’ का समानार्थक भी होता है। ‘‘प्राचीन दार्शनिक अधिकांशतः ‘चेतना’ के बजाय ‘आत्मा’ की संकल्पना का उपयोग करते थे। आत्मा से उनका तात्पर्य मनुष्य की मानसिक क्षमताओं की समग्रता से यानी उसकी देखने, सुनने, सोचने, अनुभव करने आदि की क्षमताओं से होता था।’’[7] मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है और जब संवेदनशीलता की बात होती है तो नारी को संवेदनाओं की प्रतिमूर्ति कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा। अपनी इसी विशिष्टता के कारण नारी जीवन प्रदायनी भी है और जीवन पारखी भी। जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदनाओं का तीव्रतम ग्राह्य नारी जाति का एक विशिष्ट गुण है। यदि पुरुष और स्त्री के जीवनोभोग की तुलना की जाए तो कई स्तरों पर स्त्री, पुरुष से अलग संसार में जीती है। जितना वह बाह्य संसार में जीती है उतना ही उस पर एक आन्तरिक व्यक्तित्व निरन्तर प्रभावी होता है। यही कारण है कि एक नारी कई दृष्टिकोणों से पुरुष से अलग व्यक्तित्व रखती है। भारतीय समाज एक पुरुषवादी समाज रहा है जिसके कारण स्त्रियों के अधिकार और कार्य प्राचीन समय से उसी के द्वारा निर्धारित होते रहे हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त एवं पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव ने नारी विषयक, समाज एवं पुरुष के दृष्टिकोण में काफी परिवर्तन दृष्टिगत होता है। 19वीं शताब्दी में होने वाले समाज सुधारों के फलस्वरूप स्त्री की सामाजिक स्थिति एवं प्रस्थिति दोनों में ही क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। वर्तमान परिदृश्य में यह परिवर्तन अपनी पूर्णता की ओर अग्रसर दिखाई देता है। वर्तमान परिदृश्य में नारी एक अबला का पर्याय न होकर एक शक्ति सम्पन्न युग परिवर्तनकर्ता के रूप में समाज में स्वयं को स्थापित करती है। आधुनिक समाज में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जिसमें स्त्री/नारी की सहभागिता न दर्ज की गयी हो। वर्तमान नारी अपने अधिकारों से परिचित भी है और उन अधिकारों की प्राप्ति हेतु शक्ति सम्पन्न भी। हिन्दी साहित्य की स्त्री आत्मकथाएँ नारी की इसी असीम शक्ति की न सिर्फ उद्घोषणा करती है अपितु सम्पूर्ण नारी समाज के लिए प्रेरणा का भी कार्य करती हैं। आधुनिक हिन्दी साहित्य में यद्यपि स्त्री लेखन एक उत्कर्ष स्वरूप में दिखाई देता है। यदि इस लेखन के प्रारम्भ बिन्दु की बात करें तो महादेवी वर्मा के नाम को भूलना एक अपराध से कम नहीं होगा। महादेवी वर्मा जी द्वारा रचित ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ स्त्री स्वर को साहित्य में स्थापित करने में पूर्णतः समर्थ रचना है और इसके बिना स्त्री आत्मकथा की बात करना खोखला होगा। स्त्री चेतना से सम्बन्धित अपने विचार रखते हुए महादेवी जी लिखती हैं, ‘‘आज हमारी परिस्थिति कुछ और ही है। स्त्री न घर का अलंकार बनकर रहना चाहती है और न देवता की मूर्ति बनकर प्राण प्रतिष्ठा चाहती है। कारण वह जान गई है कि एक का अर्थ अन्य की शोभा बढ़ाना है तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजाये को देखता रहना है या जिसे उसे न देकर उसी के नाम लोग बॉट लेंगे।’’[8] आत्मकथा के रूप में महिला लेखिकाओं ने समाज में स्त्री के लिए स्थापित पूर्व मान्यताओं और कुण्ठित विचारधाराओं को वाणी प्रदान की। महिला लेखिकाओं द्वारा रचित रचनाओं में समाज द्वारा दी गयी प्रताड़ना एवं नैतिक अधिकारों का न मिलना, पुरुषवादी विचारधारा का खण्डन एवं स्त्री अस्मिता के प्रश्न को पुरजोर तरीके से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। कल्पना वर्मा स्त्री आत्मकथा और उसके पहलुओं पर विचार करते हुए लिखती हैं- ‘‘आत्मकथा वैसे भी उपन्यास न होते हुए भी अन्ततः एक उपन्यास जैसा होता है, जिसमें रचनाकार का आत्म ही नहीं बल्कि पर का भी व्यापक परिदृश्य होता है तथा अन्तर्मन का संघर्ष भी दिखायी पड़ता है। किसी भी सफल आत्मकथा में आत्मकथाकार के लिए जीवन की प्रस्तुती से ज्यादा जीवन रचने की प्रक्रिया होती है जिससे वह अपने अनुभवों का सच्चाई से बयान करता है।’’[9] जीवन एक गतिशील
प्रक्रिया है। उसमें प्रवाह का जो गुण है वही उसकी उपादेयता को प्रमाणित करता है।
जीवन का प्रवाह एक समान गति से गतिशील नहीं होता। जीवन के उठापटक निरन्तर मनुष्य
को प्रभावित करती रहती है। जीवन की यह उठापटक समाज के प्रत्येक स्तर पर स्त्री के
जीवन का एक कटु सत्य है। स्त्री लेखिकाओं द्वारा रचित आत्मकथाओं में स्त्री चेतना
के इसी मर्मान्तक चिरंजीवी प्रश्नों को अभिव्यक्ति का स्वरूप प्रदान किया गया है। ‘अन्या से अनन्या’ एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो सामाजिक एवं आर्थिक रूप से सम्पन्न है। उच्च जाति से है फिर भी वह पुरुष के द्वारा स्थापित स्त्री हाशिए का शिकार होती है। वह माँ के प्यार से सदैव वंचित रहती है जिसका उन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा ‘और...और.... औरत’, एक औरत की कारूणिक जीवन गाथा के रूप में पाठकों के समक्ष स्त्री चेतना के प्रश्न को मुखरित करती है। कृष्णा जी सदैव प्रेम प्रसंग में छली जाती हैं। ‘अन्या से अनन्या’ में प्रभा खेतान जी अपनी स्त्री चेतना को वाणी प्रदान करते हुए लिखती हैं- ‘‘मेरी यह आवाज एक भिन्न आवाज है और इस आवाज का खतरा सही था कि यह आवाज अनसूनी रह जाती क्योंकि मैं पूरी तरह न तो उदारवादी थी और न ही मार्क्सवादी, न परम्परा से चिपकी रही और न आधुनिकता को भलीभाँति ओढ़ पाई। बस दिक्काल के निश्चित दायरे में अपने स्वभावगत तमाम विरोधाभासों के लिए जीती रही। मेरे लिए एक और मुक्ति की नयी उड़ाने थी तो दूसरी ओर पुनः लौटकर उसी दायरे में बंधे रहने की विवशता थी।’’[10] मन्नु भण्डारी की आत्मकथा, ‘एक कहानी यह भी’, समाज में स्त्री के रूपगत सौन्दर्य के विभेद को प्रकट करने वाला एक हृदयास्पर्शी प्रकटन है। भण्डारी जी लिखती हैं- ‘‘मैं काली हूँ। बचपन में दुबली और मरियल भी थी। गोरा रंग पिता जी की कमजोरी था सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हसमुख, बहिन सुशीला से हर बात में तुलना और फिर उनकी प्रशंसा ने ही क्या मेरे भीतर ऐसे गहरी हीन भावना की ग्रन्थि पैदा कर दी की नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई? आज भी परिचय करवाते वक्त जब कोई तरह-तरह के विशेषण लगाकर मेरी लेखकीय उपलब्धियों का जिक्र करने लगता है तो मैं संकोच में सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने को ही जाती हूँ।’’[11] मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा ‘कस्तूरी कुण्ड बसै’ में भी स्त्री संघर्ष का दर्द दिखाई पड़ता है। पद्मा सचदेव की ‘बूँद-बावड़ी’ सामाजिक अनैतिक्ताओं के प्रति स्त्री का आक्रोश व्यक्त करती है। कुसुम अंसल की रचना ‘जो कहानहीं गया’ भी जिन्दगी की विसंगतियों में स्त्री चेतना के पक्ष को उजागर करने वाली अतुलनीय आत्मकथाएँ हैं। स्त्री चेतना और उसके लेखन पर विचार करते हुए अपनी सम्पादित पुस्तक ‘देहरि भई विदेश’ की पीठिका में लिखती हैं, ‘‘अपनी बात कहकर स्त्री अपने भीतर के उस भय को जीती है जिसे परिवार और समाज ने हजारों सालों में उसके असुरक्षित अस्तित्व का पर्याय बना दिया है। हर स्त्री कन्या एक दमन-कथा भी है और विद्रोह कथा भी।’’[12] वर्तमान संदर्भों में स्त्री अपने अधिकारों एवं दायित्वों के प्रति पहले से काफी सजग है। उसकी यह सजगता उसके आत्मलेखन में भी दिखाई देती है। स्त्री चेतना को आलोकित करने के पथ पर जो खतरे हैं उनसे स्त्री रचनाकार भली-भाँति परिचित भी है और उससे निपटना भी उसे बखूबी आता है। स्त्री आत्मकथा लेखन में स्त्री की उन्नति, आत्मसम्मान और प्रतिस्पर्धी युग में पुरुष की समकक्षता आदि प्रमुख रूप से ध्वनित हाती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् महिला आत्म कथा लेखन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। आज ऐसी कई सशक्त महिलाओं के नाम से हम परिचित हैं जिन्होंने पुरुषों की सत्ता को न सिर्फ चुनौती दी अपितु अपना स्थान भी सुनिश्चित किया। वर्तमान सन्दर्भों में स्त्री लेखन जितना अपने कौशल में परिपूर्णता को प्राप्त हुआ है उतना ही स्त्री चेतना के प्रश्न को अपने लेखन की विषयवस्तु बनाया है। समकालीन महिला लेखन में आत्म संघर्षशीलता के साथ ही वृहद चिन्तनशीलता भी सम्मिलित है। समकालीन आत्मकथा लेखिकाओं का लेखन एवं चिन्तन केवल स्त्री चेतना के प्रश्न को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना मात्र न होकर समाज में स्त्री विरोधी व्यवस्था के विरूद्ध क्रान्तिकारी कदम की शुरूआत करना है। समाज में स्व की सत्ता का निर्धारण करना ही चेतना का मूल है और महिला आत्मकथा स्त्री चेतना के पक्ष को पूर्णतः ईमानदारी से उद्घाटित करती है। |
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निष्कर्ष |
इस प्रकार स्त्री आत्मकथा लेखन में स्त्री जीवन के कटु सम्य, आत्म सम्मान की अभिलाषा, स्वावलम्बन की माँग नारी सशक्तिकरण आदि स्त्री चेतना के विविध पक्षों का बड़ी ही गहनता से विचार किया गया है। स्त्री चेतना के विचारों से लबरेज महिला आत्मकथाएँ समाज में स्त्री के स्वतन्त्र अस्तित्व के निर्माण और पुरुष सत्ता की बराबरी की माँग करती हुई स्त्री चेतना का एक नया अध्याय एवं नया मार्ग आलोकित करती है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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