|
|||||||
हिन्दी साहित्य में नवगीत के विकास का स्वरूप |
|||||||
The Nature of Development of Navgeet in Hindi Literature | |||||||
Paper Id :
19485 Submission Date :
2024-12-10 Acceptance Date :
2024-12-22 Publication Date :
2024-12-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14628052 For verification of this paper, please visit on
http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
|
|||||||
| |||||||
सारांश |
आधुनिक काल में आकर काव्य परम्परा में जब हर 10-15 वर्षों के अन्तराल में
कविता नये-नये नाम व वादों के घेरे में बन्धकर अपनी पहचान करवाने लगी, उसी दौर में
गीत ने भी नयी कविता की शैली का नामकरण नवगीत करवा डाला। विद्वान लोग जिस
प्रकार से छायावाद, प्रयोगवाद, नयी कविताएँ, अकविता, विचार कविता आदि के नामों को
लेकर पारस्परिक वैचारिक संघर्ष में जुटे हुए थे, उसी समय धीरे-धीरे अन्य नामों की
भाँति नवगीत अपनी पहचान बना बैठा। कवि बिना बिम्बों, प्रतिकों के और संवेगों की
संश्लिष्टता सूक्ष्मता के गीत को व्यक्त नहीं कर पाते है। आज का यही भाव सत्य नये
गीतों में व्यक्त हो रहा है। नवगीतों में कवियों ने सुन्दर नये गीतों की रचना की
है। इन गीतों की अनुभूति की सच्चाई, अनुभूति की अपनी-अपनी विशिष्टता, नवीन
सौन्दर्य बोध इन गीतों में स्पष्ट हुआ है। लोक जीवन की नयी छवियों को नये गीतों
में समटने का प्रयास किया गया है। इस प्रकार नये में से ही अपने आपकों अलग दिखाने
की झोंक में आजकल गीत को नया नाम नवगीत देना आरम्भ किया गया है। |
||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In the modern era, when poetry started getting identified with new names and ideologies in the poetic tradition every 10-15 years, during the same period, songs also got the style of new poetry named as 'navgeet'. The way scholars were engaged in ideological conflict over the names of Chhayavaad, Prayogvaad, Nayi Kavita, Akavita Vichar Kavita etc., at the same time, slowly, like other names, 'navgeet' got its identity established. Poets are unable to express songs without images, symbols, and the complexity and subtlety of emotions. Today, this very feeling is being expressed in new songs. In Navgeet, poets have composed beautiful new songs. The truth of the experience of these songs, their own uniqueness of experience, new sense of beauty has become evident in these songs. An attempt has been made to include new images of folk life in new songs. In this way, in a bid to differentiate oneself from the new things, nowadays songs have started being given a new name 'Navgeet'. | ||||||
मुख्य शब्द | छायावाद, प्रयोगवाद, नवगीत, अकविता, संश्लिष्टता, सूक्ष्मता, अनुभूति, सौन्दर्य, छवियों, गीत, समेटना। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Shadowism, experimentation, neo-lyricism, non-poetry, synthesis, subtlety, feeling, beauty, images, song, summation. | ||||||
प्रस्तावना | नवगीत, गीत लेखन की आधुनिक विद्या है, जिसका प्रचलन हिन्दी साहित्य में छायावाद युग के उपरान्त साठ के दशक में नयी कहानियों के दौर के समानान्तर शुरू किया गया। नवगीत में गीत होना जरूरी है। यों तो किसी भी गाने योग्य शब्द रचना को गीत कह सकते है। लेकिन किसी एक ढ़ांचे में रची गयी समान पंक्तियों वाली कविता को किसी ताल में लयबद्ध करके गाया जा सकता हो तो वह गीत की श्रेणी में आती है। छन्दबद्ध कोई भी कविता गायी जा सकती है पर उसे गीत नही कहा जाता। |
||||||
अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र के अध्ययन का उद्देश्य हिंदी साहित्य में नवगीत के विकास का स्वरूप का अध्ययन करना है। |
||||||
साहित्यावलोकन | इस प्रकार नवगीत एक परम्परा का पोषक है तो दूसरी और आधुनिक बोध के प्रति सजग
और सतर्क भी है। नवगीत में व्याप्त सामाजिक चेतना की प्रवृति उसे समाज के प्रत्येक
कर्म से जोडती है। विशेषतः निर्धन, अभावग्रस्त मानव के प्रति
सहानुभूति इसका आधार है। यह काव्य सांस्कृतिक चेतना के प्रति जागरूक है और अपने
देश की मिट्टी से जुड़ा है। अतः प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, कला और नैतिक
मूल्यों के प्रति इसमें सम्मान की भावना मिलती है। |
||||||
मुख्य पाठ |
आधुनिक काल में आकर काव्य-परम्परा में जब हर 10-15 वर्षों के अन्तराल में
कविता नये-नये नाम व वादों के घेरे में बधकर अपनी पहचान करवाने लगी, उसी दौर में गीत ने
भी नयी कविता की शैली का नामकरण ‘नवगीत’ करवा डाला। विद्वान
लोग जिस प्रकार से छायावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता विचार कविता
आदि के नामों को लेकर पारस्परिक वैचारिक संघर्ष में जुटे हुए थे उसी समय धीरे-धीरे
अन्य नामों की भाँति ‘नवगीत’ अपनी पहचान बना बैठा। कवि
बिना बिम्बों, प्रतिको और संवेगों की संश्लिष्टता, सूक्ष्मता के गीत को
व्यक्त नहीं कर पाते है। आज का यही भाव सत्य नये गीतों में व्यक्त हो रहा है।
नवगीतों में कवियों ने सुन्दर नये गीतों की रचना की है। इन गीतों की अनुभूति की
सच्चाई, अनुभूति की अपनी-अपनी विशिष्टता, नवीन सौन्दर्य बोध
इन गीतों में स्पष्ट हुआ है। लोक जीवन की नयी छवियों को नये गीतों में समटने का
प्रयास किया गया है। इस प्रकार नये में से ही अपने अपने अलग दिखाने की झोंक में
आजकल गीत को नया नाम ‘नवगीत’ देना आरम्भ किया गया है। नवगीत, गीत लेखन की आधुनिक विद्या है, जिसका प्रचलन, हिन्दी साहित्य में, छायावाद-युग के
उपरान्त, साठ के दशक में, नयी कहानियों के दौर के समानान्तर
शुरू किया गया। नवगीत में गीत होना जरूरी है। यों तो किसी भी गाने योग्य शब्द रचना
को गीत कह सकते है। लेकिन किसी एक ढ़ांचे में रची गयी समान पंक्तियों वाली कविता को
किसी ताल में लयबद्ध करके गाया जा सकता हो तो वह गीत की श्रेणी में आती है।
छन्दबद्ध कोई भी कविता गायी जा सकती है पर उसे गीत नही कहा जाता। डॉ. नगेन्द्र नये गीत व नवगीत के सन्दर्भ में कहते है कि ‘‘गीत एक विद्या है, और समसामयिक
परिवर्तनों के साथ चिरन्तन विद्या है। यह सत्य है कि आज व्यक्ति के सुख-दुःख, राग-विराग की
संवेदना आदिकाल के मानव की संवेदना की तरह प्रत्यक्ष, सीधी और आवेगात्मक
नहीं है- उसमें बौद्धिक युग की बहुत सी जटिलताएँ आ गयी है। आज की संवेदना आदिकालीन, मध्ययुगीन और आधुनिक
काल के रूमानी गीतों की संवेदना की तरह लय में वेग से फूट नही चलती बल्कि वह एक
विशिष्ट मानसिक स्थिति में अपने अनुकूल बिखरे हुए संवेगों से जुडती है अर्थात् एक
संवेग दूसरे संवेग से संक्रान्त होता है। इन संक्रान्त संवेगों को रूपायित करने के
लिए कवि को अनिवार्य रूप से बिम्बों और प्रतीकों के बिना संवेगों की संशिलष्टता और
सूक्ष्मता बाधित नहीं हो पाती है। आज का यही भाव सत्य के नये गीतों में व्यक्त हो
रहा हैं। नयी कविता में इन कवियों ने सुन्दर नये गीतों की रचना की है। इन गीतों
में अनुभूति की सच्चाई, अनुभूति की अपनी-अपनी विशिष्टता, नवीन सौन्दर्य बोध
आकार लघुता, नवीन बिम्ब, प्रतीक योजना, नये उपमान, प्रयोग आदि नयी
विशिष्टिताएँ स्पष्ट हो पाई है। लोकजीवन की नयी छवियों को इन नये गीतों में समेटने
का प्रयास किया गया है। इस प्रकार के नये गीतों में से ही अपने आपको अलग दिखाने की
होड़ में आजकल गीत को नया नाम ‘नवगीत’ देना आरम्भ किया है।
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- ‘‘इन (नवगीतों) गीतों में घरेलू जीवन का परिवेश है, प्रकृति को बहुत
टटके अछूते बिम्ब है और आस-पास के जीवन का रंग है।’’ [2] नवगीत आन्दोलन को स्वीकार व अस्वीकार करने का सिलसिला भी चलता रहा इसी संदर्भ
में डॉ. बच्चन ने कहा ‘‘यो तो हिन्दी में गीत लिखने की परम्परा पुरानी है लेकिन नयी
कविता आन्दोलन के समय सामान्यतः कवियों ने गीत लिखना छोड़ दिया। किन्तु नयी कविता
के वजन पर ‘नवगीत’ नाम से इसे जलाये रखने की
कोशिश की गयी। यह कार्य मुख्य रूप से शंभुनाथ ने किया। शंभुनाथ जी ने अच्छे गीत
लिखे है। जगदीश गुप्त, ठाकुर प्रसाद सिंह, रविन्द्र कुमार, राम दास मिश्र, श्री कृष्ण तिवारी
आदि के गीतों की संख्या भी कम नही है, लेकिन नवगीत हिन्दी कविता
की मुख्य धारा से कभी भी जुड़ नही पाया।’’ [3] डॉ. गणपति चन्द्र ने उपयुक्त सभी मतों का समाहार सा करते हुए ‘नवगीत‘ के प्रारम्भ व बाद
मे उसकी स्थिति का उल्लेख विस्तार सहित किया व नवगीत को हिन्दी साहित्य-धाराओं में
मुख्य स्थान दिलवाने का प्रबल समर्थन किया। इनके अनुसार - ‘‘जब ‘नयी कविता’ के नेताओं ने ‘गीति’ को काव्य के क्षेत्र
से ही बहिष्कृत करने का प्रयास किया तो इससे गीतकारों (नयी कविता में गीत रचने
वाले कवियों) के भी आत्म सम्मान को गहरी चोट पहुँची और उन्होंने भी पूरी शक्ति से
‘गीतिकाव्यों को नवगीत’ के रूप में प्रतिष्ठित करने
के लिए उन सभी साधनों एवं माध्यमों का उपयोग किया जो कि प्रयोगवाद एवं नयी कविता
के द्वारा प्रयुक्त हुए। निश्चय ही ‘नयी कविता’ के पृष्ठपोष्कों
द्वारा यह चुनौती न मिली होती तो ‘नवगीत’ कभी भी संगठित शक्ति
के रूप में उभरकर नहीं आता।’’ [4] हिन्दी काव्य धाराओं के मध्य ‘नवगीत’ किन परिस्थितियों
में अपना स्वरूप स्थापित कर पाया इसका उल्लेख स्वयं शंभूनाथ सिंह ने अपनी रचना ‘नवगीत दशक’ की भूमिका में किया
। ‘नवगीत के आरम्भिक स्वरूप व विकास को स्पष्ट करते हुए वे
लिखते है कि ‘‘नयी कविता के कवियों ने गीत-रचना को पिछड़ेपन की निशानी
मानकर उससे अपने को पूर्णतः विच्छिन्न कर लिया । नवगीत न कभी काव्यान्दोलन था, न आज है। वह तो नयी
कविता का जुडवाँ भाई है जिसे नयी कविता ने वयस्क होकर साजिश के तहत अपने शिविर से
बहिष्कृत कर दिया इस तरह नवगीत का रास्ता नयी कविता के रास्ते से अलग हो गया। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि नयी कविता का समय निर्धारण सन् 1950 से 1960 ई. के दो-चार वर्ष
आगे-पीछे स्वीकार कर लिया गया है। इस प्रकार नयी कविता के मध्य ही सन् 1957 ई. में इलाहाबाद के
साहित्य सम्मेलन की कविता गोष्ठी के अंतर्गत ‘वीरेन्द्र मिश्र द्वारा
नवगीत की प्रतिष्ठा की गयी। इन्होंने इस गौष्ठी में ‘नयी कविता: नया गीत:
मूल्याकन की समस्याएँ’’, नामक निबंध पढ़ा । इसी दौरान उन्होंने इस निबंध
में कहा कि ‘‘हिन्दी में नये गीत का जन्म हुआ है। यह नया गीत फार्म और
कण्टेन्ट दोनों ही पक्षों में समृद्ध हुआ है। यह विचारणीय है कि आज की विज्ञप्त
साहित्यिक शैलियों की चकाचौंध में कही हम गीत की दिशा में सम्पन्न हो रहे प्रयोगों
तथा जागरूक विचार-शक्ति को भूलाएं नहीं दे रहे है।’’ इनके पश्चात् सन् 1958 में राजेन्द्र
प्रसाद सिंह ने अपनी कृति ‘गीतांगिनी’ में तात्कालिक युग में रचना
करने वाले लगभग 70 गीतकारों की रचनाओं को संकलित किया व इसे ‘नवगीत’ संकलन कहा ।
इन्होंने गीतांगिनी की भूमिका में ‘नवगीत’ की रूपरेखा को
स्पष्ट करते हुए कहा - ‘‘हिन्दी कविता में प्रयोगवाद के उत्थान के साथ ही साहित्य की
पूर्वागत मान्यताओं पर चोट पड़ने लगी और मौलिकता, नवीनता, आधुनिकता, प्रयोग, जटिल संश्लेषण, अनुबिम्बन, छन्द-विरोध, मनोवैज्ञानिकता और
राहों का अन्वेषण आन्दोलन की तीव्रता से चल पड़ा। प्रगति और विकास की दृष्टि से उन
रचनाओं का बहुत मूल्य है जिनमें नयी कविता के प्रगति का पूरक बनकर ‘नवगीत’ का निकाय जन्म ले
रहा है।’’ [5] नवगीत हिन्दी काव्य-धारा की एक नवीन विचार विद्या है। इसकी प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई और लोकगीतों
की समृद्ध भारतीय परम्परा से है। हिन्दी में तो वैसे महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, सुमन, गोपाल सिंह नेपाली
आदि कवियों ने काफी सुन्दर गीत लिखे है और गीत लेखन की धारा भले ही कम रही है पर
कभी भी पूरी तरह रूकी नही। वैसे रूढ अर्थ
में नवगीत की औपचारिक शुरूआत नयी कविता के दौर में उसके समानांतर मानी जाती है। ‘‘इस प्रकार ‘नवगीत’ अपना पृथक अस्तित्व लेकर सामने आया डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त के अनुसार वस्तुतः नवगीत की स्थापना का लक्ष्य परम्परागत गीत की भाव भूमि का व्यापार करने उसमें नई अनुभूतियों एवं नूतन संवेदनाओं का संचरण करके अपने परिवेश के साथ उसका हार्दिक सम्बन्ध स्थापित करने एवं उसकी अभिव्यंजना - शैली को आधुनिक बताने का ज्ञान है। इसके बाद ‘नवगीत’ का नारा ही चल पड़ा और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रचार प्रारम्भ हो गया। ‘नये - गीत: नये स्वर’ नामक लेखमाला का प्रकाशन 1962 में ‘वासन्ती’ पत्रिका में हुआ । साथ ही 1964-65-66 में लगातार तीन वर्षों तक वातायन ने गीत विशेषको का प्रकाशन किया । इसके साथ ही साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, उत्कर्ष माध्यम, लहर व गीत जैसी पत्रिकाओं में 1964 से 1967 के मध्य नवगीत व सामग्री प्रकाशित हुई, उसी क्रम में दिल्ली से प्रकाशित ‘प्रज्ञा’, कलकत्ता की साहित्यिकी, और बम्बई की ‘रंगायन’ जैसी संस्थाओं ने भी गोष्ठियों के माध्यम से नवगीत पर चर्चा कराई। उसी समय कवियों के अलग-अलग और सम्मिलित संकलन भी प्रकाशित हुए। इस प्रकार नवगीत ने आम लोगों को साहित्य के करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । सरल भाषा, व पूर्ण अभिव्यक्ति, आम विषयों, संगीत, सामाजिक करोकारों और प्रचार के माध्यम से नवगीतों ने आम लोगों को साहित्य के प्रति रूचि पैदा करने और उन्हें साहित्यिक अनुभव प्रदान करने में सफलता हासिल की है। नवगीत का प्रभाव सभी वर्गों पर समान रूप से ही पड़ा । शिक्षित और साहित्यिक रूप से जागरूक लोगों तक नवगीत की पहुँच अपेक्षाकृत अधिक थी। ग्रामीण क्षेत्रों और कम शिक्षित लोगों तक नवगीत की पहुँच अपेक्षाकृत कम थी । आज भी नवगीत हिन्दी साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह विद्या विकसित हो रही है और नए-नए नवगीतकार अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को प्रेरित कर रहे है।’’[6] नवगीत आधुनिक युगबोध सम्पन्न एक ऐसी विद्या है जो रागात्मकता के साथ-साथ
बुद्धि, तर्क और यथार्थ को ग्रहण करने में पूरी तरह समर्थ है।
शंभूनाथ सिंह के अनुसार- ‘नवगीत’ आधुनिकतावादी कविता है, किन्तु वह आधुनिकता
सार्वभौम और सार्वकालिक नहीं बल्कि देशकाल सापेक्ष है। अतः उसकी आधुनिकता भारतीय
परिप्रेक्ष्य वाली विशिष्ट आधुनिकता है अर्थात् वह पाश्चात्य आधुनिकता का
अंघानुकरण नहीं है वह भारतीय परिस्थितियों के गर्भ से उत्पन्न यथार्थ और भोगी हुई
अनुभूतियों की आधुनिक है। नवगीतकारों में विद्यमान वर्तमान के प्रति सजगता उनकी प्रगतिशीलता
को लक्षित करती है। वैश्विक चिन्ता को आधार बनाकर लिखे गए गीत समाज में घटित
प्रत्येक परिवर्तन, चिंतन और व्यवहार को अभिव्यक्त करते है। वर्तमान युग तंत्र-सभ्यता का युग है। आज की भागदौड़ वाली जिंदगी में मानवता एक
मशीन की भाँति बन कर रह गया है जिसकी संवेदनाएं मर चुकी है। आज व्यक्ति केवल खोखली, मुस्कान, अकेलेपन, व्यस्तता एवं मौन के
सहारे जी रहा है- फिर न रेगिस्तान होते देह में ऐसे फिर न आते द्वार पर मेहमान हो जैसे हड्डियों को काटती क्यों औपचारिकता खोंखली मुस्कान की तह में नहीं रोते। [7] औद्योगीकरण के कारण नगरीकरण का दौर चला जिसमें ग्रामीणों ने शहरों की ओर पलायन
करना प्रारम्भ कर दिया। कालान्तर में इस महानगरीय जीवन ने लोगों की स्वाभाविकता को
नष्ट करके उनमें अकेलेपन, घुटन, कुण्ठा, अजनबीपन, संत्रास जैसी
प्रवृति को पैदा कर दिया। नवगीत में इस महानगरीय जीवन की, उसके प्रभावों के
साथ अभिव्यक्ति है। सोम ठाकुर के गीत ‘तने हुए शहर के, देवेन्द्र शर्मा के ‘टूट रही महरबे’, शिवबहादुर सिंह
भदौरिया के गीत ‘महानगर’ मे गाँव की याद’, में शहरी जीवन की
संस्कृति और उसके प्रभावों का वर्णन हैं। महानगर की घुटन भरी जिन्दगी का वर्णन
करते हुए कुंअर बेचैन लिखते है- ऊपर लेबल अमृत का
है भीतर भरा जहर, जिस बोतल में कैद
हुआ हूँ, उसका नाम शहर। [8] डॉ.शंभूनाथ सिंह के नवगीतों में छायावादी, प्रगतिवादी एवं प्रयोगवादी प्रभाव को आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता । इनके द्वारा रचित प्रमुख संग्रह- उदयाचल (1946), दिवालोक (1951), समय की शिला पर (1968), जहाँ दर्दनील है (1977) आदि । इनका प्रमुख ‘नवगीत दशक’, सम्पादित गीत संग्रह है जिसमें प्रमुख दस नवगीतकारों- शिव बहादुर सिंह भदोरिया, सोमनाथ ठाकुर, देवेन्द्र शर्मा, नईम, देवेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप, उमाकान्त मालवीय, रामचन्द्र चन्द्रभूषण, ठाकुर प्रसाद सिंह और शंभूनाथ सिंह आदि नवगीत संग्रहीत है। प्रयोगवाद एवं नयी कविता में प्रकाशित तार सप्तक व दूसरा, तीसरा सप्तकों की भाँति नवगीत दशक का अपना विशेष महत्व है। शंभूनाथ सिहं के गीतों में तात्कालिक संवेदना, यान्त्रिकता और उत्साह, साहस को देखा जा सकता है- ‘‘रेल के हम है डब्बे, खींचते कोई और। छोड़कर ये पटरियाँ, है कहाँ हमको ठौर। बन्द सब रास्ते हैं, सारे चक्के जाम है।’’ [9] इसी प्रकार इन्होंने अपने
संग्रह ‘समय की शिला पर’ लेख में लिखा है- रात गयी पर न खुली अर्गला, मुक्ति मिली पर कहीं
श्रृंखला। बन्दिनी अभी विमुकत कुन्तला, अपने ही घर में यह
नवीन दासता। कब तक चुपचाप सहोगे ओ जन-देवता।’’ [10] नवगीतों में सामाजिक परिवर्तन का दौर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। सामाजिक
परिवर्तन के साथ ही समाज की सरंचना एवं कार्यप्रणाली का एक नया जन्म होता है। इसके
अंतर्गत प्रस्थिति, वर्ग, स्तर तथा व्यवहार के
अनेकानेक प्रतिमान बनते एवं बिगड़ते हैं। समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन
अवश्यभावी है- ‘‘जिनकों भूल गई आजादी महलों में आ जाते ही जैसे भूल जाय पीहर को, दुलहन पति को पाते
ही या फिर कोई ठुकरा दे, सीढ़ी को ऊपर जाते ही, कोई छेद करें थाली में
खाना-खाते ही ।।’’ [11] तत्कालिक समाज, राजनीति, परम्परागत मूल्य एवं
पतन, नैतिक आदर्शों का चित्रण हुआ है। उमाकान्त मालवीय जी ने अपने गीतों के विषय ‘दाम्पत्य जीवन’, परिवार और समाज चुने है। इनके नवगीत
संग्रहों में ‘मेहन्दी और महावर’ सुबह रक्त पलाश की, प्रमुख है- बडे़ - बड़े आश्वासन है, तोता मैना के किस्से, लाठी, गोली, अश्रुगैस, इतना ही जन के
हिस्से। जनता की भूमिका यही, जूठन से भात कुछ
बिने ।’’ [12] आज का जीवन अत्यन्त जटिल है। सत्य हंस के उजले पंख दुर्दान्त दाहकता में झुलस
गए है, मूल्य टूटे है या उनकी आवश्यकता को ही सिरे से नकारा जा रहा
है। पर्यावरण प्रदूषित है। संस्कृति विकृति में बदल रही है। लोक मन में विकार घर
करने लगे है। रावन शक्तिशाली होकर गरज रहा है। परन्तु नवगीतकार इस विद्रूषित और
जटिल यथार्त को स्वर देते हुए भी भयभीत नहीं। वह हर राक्षसी कुत्सा से लड़ने-जूझने
को कृत संकल्प है और उसकी जिजीविषा अदम्य है। इसलिए कभी वह ‘गूंज रही है।’ गुडाकेश ध्वनियाँ
रजनीचर सावधान’ (यायावर) कहकर आसुरी शक्तियों को ललकारता है और
कभी आते है बारूद मुखी दो पाये हड़काना। लाना रे वृन्दावन मेरी वंशी तो लाना। ’(महेश अनघ) जैसी
उक्तियों से हिंसा की बर्बरता को धिक्कारते हुए वृन्दावन और वंशी के मधुरिम नाद की
मीठी बात को जीवन का स्वर बताता है। जब नवगीतकार कहता है- हम पत्थर बांधकर कहते है
परों से/निकले है /इनके घरों से ठिठके हर ध्रुवानत यात्रा/
हिम होगी आग बिजलियों की /घनीभूत, घटाटोपतम में अँकरेगी रोशनी/दियों
की/जनमेगी जीवन की आहर कुँहरे में/धूप के स्वरों
से । [13] तो वह अपनी जीवन्तता और भारतीय मन की अदम्य जिजीविषा का उद्घोष ही कर रहा होता
है। इसी तरह जब कोई ऊर्जास्वी नवगीतकार कहता है- ये अँधेरे तो
क्षणिक है। क्या उमर इनकी। अंजूरी में भर। कभी कोई किरण
पीले रोशनी। बस एक शाश्वत सत्य। जीवन का। प्राण में अमरत्व का। बन स्त्रोंत झरता है सन्नाटों में। [14] नवगीतकारों का एक वर्ग सामाजिक संघर्ष वर्ग भेद लेकर और वर्णभेद के विदु्रषित
यथार्थ को ही नवगीत का वास्तविक आधार मानता है। और यथार्थ के इसी स्वार्थ लिप्त
जटिल विंसगत और कुटिल यथार्थ को नवगीत की वास्तविक संवेदना मानना व मनवाना चाहता
है परन्तु यथार्थ का स्वरूप इतना इकहरा और एकरूपयी नहीं होता, न हो सकता है। आज
सम्मिलित परिवार टूट रहे है। नौकरी या व्यवसाय के चक्कर में माता-पिता को सन्तानों
से अलग रहना पड़ रहा है। वृद्धों की स्थिति पहले जैसी नहीं रही। जहाँ वे सम्मिलित
परिवारों में रह रहे हैं, वहाँ भी वे उतने सम्मानित नहीं रहे, जितने की वे अपेक्षा
करते थे। वृद्धों की इस पीड़ा का एक चित्र - ‘सेवा निवृत हुए/तभी से हम हो गए बेगाने घास फूस की, बनी मड़ैया चित्र गिरी
चौखाने हर सुझाव को लोग, बीच में / टाँग
अड़ाना, समझें हम फिर अपने से
ही, उलझें/ अपने से ही सुलझें पत्नी कहती दिल
के रोगी/पुत्र कहें सठियाने। [15] नवगीत में केवल अपने प्रति ही जिम्मेेदारी नहीं, बल्कि समाज और देश के प्रति भी जिम्मेदारी महसूस की गई । नवगीत प्रकृति और व्यक्ति जीवन से लेकर देश की सीमाओं को स्पर्श करने का प्रयास करते हैं- ‘‘ याद आई हाँ याद आई, सागर तट पर बिखरते हुए फेन की गति और लय को देखते हुए मुझे देश की परिस्थिति । [16] अतः देश के प्रति जिम्मेदारी का अर्थ है नैतिकता प्रतिबद्धता अपना और सभी
व्यक्तिगत या समूह जिम्मेदारियों को निभाना। देश के प्रत्येक नागरिक को समझना
चाहिए। आज यान्त्रिकता का प्रवेश जीवन की रसधारा को क्रमशः क्षीण करता जा रहा है। वह
एक दम सूख ही न जाये। इसके लिए गीत जीवित रहना जरूरी है। गीत की पंक्तियां प्रयास
करके बुनी जा सकती है, लेकिन उसकी प्राणवता उसके स्वतः स्फूर्त होने में है। उसके
लिए प्रार्थना में उतरना पड़ता है। प्रतीक्षा करनी पड़ती है- ‘‘जानें क्यों मेरे अन्तर में जनम-जनम की पीर पल गई अधरों पर मुस्कान बसी है, पर प्राणों में पीर घनी है। कुछ पीड़ा गीतों में ढाली, कुछ पीड़ा गीता में ढाली। कुछ नयनों का नीर बनी है, जग कहता आँसू पानी है। मैं कहती वेहना गल गई। इतने मोती झरे दृगों से, कोष लुटा बैठी हूँ सारा। रूप सुधा के प्यासे लोचन, पाना चाहें दरस तुम्हारा। तुम फिर भी पाषाण बने हों, निर्मम मुझको प्रीत छल गई। [17] नवगीतकारों में कुछ उदियमान गीतकार भी है जो आज के गीतों के मध्य से समाज में
बदलती परिस्थितियों का वर्णन करते है। समय की प्रतिकूल परिस्थितियाँ व्यक्ति के
जीवन में सब कुछ उलट-पलट देती है। नियम किस तरह बदल जातें है। कायदे कानून की
परिभाषा का रूप बदल लेती है, प्रकृति भी प्रतिकूल स्वरूप
में प्रस्तुत होने लगती है - आज दिखाई दे रहे, बदले हुए उसूल अमलतास की दुःखी कहानी जूही की आँखों में पास बुझी-बुझी कचनारी शाखा चम्पा दुःख किनसे आया खुदखुशी करने लगें, अब गुलाब के फूल। गीत कौऐ गाने में लीन मन तुलसी का हो हँसे ढ़ाक के पत्ते तीन चुप्पी अंकुर साध रहे, अब दरिया के कूल।[18]
नवगीतों में युगीन परिस्थितियों के साथ व्यक्तिगत आशा-निराशा, कुण्ठा-पीड़ा को भी
नवीन अभिव्यक्ति का विषय बनाकर नवगीतों में ढालने का प्रयास किया जाता है।
राजनीतिक यर्थाथ बोध व भ्रष्टाचार की जड़ो को भी गीतों के माध्यम से कुरेदने का
सुन्दर प्रयास किया है - ‘परित्यक्ता सी कई फाइलें, अलग-अलग मेजों पर चुप
हैं उनके घूंघट, जैसे अंधे कोटपीस की, छिपी तुरप है। कई रिश्वतें, गर्लफ्रेड सी, झाँक रही है। बाहर
की चिक से।’ [19] युगीन खोखले आश्वासनों से प्राप्त निराशा को दूर भगाने के लिए आज के
नवगीतकारों ने अपने गीतों के माध्यम से छोटी सी कोशिश की है- आज जरा सा पानी बरसा। जाग उठी आवाज नदी में बोली नाव बाले किनारे। लहरों के इकतारे बोले झाँझर बोली, गागर बोली। जो भी थे वो सारे बोले पानी ने जब छुआ, बज उठे। तरह-तरह के साज नदी में। [20] भारतीय परम्परा को अपने में समेटे नवगीत आज आधुनिक युग की बौद्धिकता से भी जुड
गया है। इंटरनेट और कम्प्यूटर पर आधारित दुनिया, सूचना प्रौद्योगिकी, बाजार उपभोक्ता-
संस्कृति, पॉपुलर कल्चर आदि उत्तर सदी के आयाम भी नवगीत में स्पष्ट
देखे जा सकते है- अरे शाश्वत तुम सुपर कम्प्यूटर के
आकड़े हो यो खडे मत रहों आओ पढ़ो टेलीपोथियों को और सीखों तुम लगाना नये युग की गोटियों को
। [21] नवगीत आधुनिकता की उपलब्धियों से परिचित है परन्तु वह उस आधुनिकीकरण का प्रबल
विरोध करता है, जो भारतीय अस्मिता को मिटाकर यांत्रिक आज में परिवर्तन करना
चाहता है। बल्कि वह चाहता है कि आधुनिकता के इस शोर से जो घुटन का एहसास होता है
वह सुखद क्षणों में परिवर्तित हो रहा चुप्पियों का जहरीलापन नवगीत की लय में ले- शोर को हम गीत में
बदले । इन निरर्थक शब्द समूहों का खुदरापन ही घटे कुछ तो उमस से दम घोंटते दिन ये सुखद लम्हों में बटे कुछ तो चुप्पियों का यह विषेलापन लयों के नवगीत में
बदले [22] इस प्रकार नवगीत एक परम्परा का पोषक है तो दूसरी और आधुनिक बोध के प्रति सजग
और सतर्क भी है। नवगीत में व्याप्त सामाजिक चेतना की प्रवृति उसे समाज के प्रत्येक
कर्म से जोडती है। विशेषतः निर्धन, अभावग्रस्त मानव के प्रति
सहानुभूति इसका आधार है। यह काव्य सांस्कृतिक चेतना के प्रति जागरूक है और अपने
देश की मिट्टी से जुड़ा है। अतः प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, कला और नैतिक
मूल्यों के प्रति इसमें सम्मान की भावना मिलती है। |
||||||
निष्कर्ष |
नवगीत साठोत्तरी हिंदी कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति है! नवगीत का प्रारंभ श्री राजेंद्र प्रसाद सिंह ने गीतांगिनी के माध्यम से सन 1958 में प्रदान किया! नवगीत ने छायावाद के सरोकार के साथ-साथ नई कविता को भी अपने स्नेह से लाभ पहुंचा कर उसे सहज बोधगम्यता से सहारा दिया है। नई कविता के टूटे हुए सामाजिक सरोकारों को अपनी उर्वर एवं सशक्त अभिव्यक्ति के माध्यम से पुनः समाज से जोड़ने का प्रयास किया है । उन प्रमुख नवगीतकरो में शंभूनाथ सिंह, कुंवर बेचैन शर्मा, देवेंद्र कुमार, इंद्र, जहीर कुरैशी, राजेंद्र गौतम, उमाकांत तिवारी, हरीश निगम, वीरेंद्र मिश्र, रमेश रंजन आदि नवगीतकार नवगीत का विकास कर रहे हैं । नवगीत के केंद्र में आजादी के बाद उभरी परि स्थितियों और सभी विचारधाराओं के प्रति निराशा और मोह भंग का भाव मिलता है। नवगीत के माध्यम से कई वृजनाएँ टूट गई । नवगीत आत्म केंद्रित भाव से नहीं समग्रता के दृष्टि कोण से लिखे जाने लगे । साठोत्तरी कविता के दौर में नवगीत आंदोलन का सबसे बड़ा योगदान यह माना जा सकता है कि इसने गीत जैसी विद्या को एक व्यक्ति तक सीमित न मानकर उसे कोरी भावुकता की दुनिया से निकाल कर समाज को वास्तविक स्थितियों से जोड़ा साथ ही अपने बेजोड़ अभि व्यक्ति कौशल से इस विधा को पुनः प्रसांगिक बना दिया। |
||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
|