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यात्रा संस्मरणों में सांस्कृतिक और साहित्यिक अवलोकन |
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Cultural and Literary Observations in Travel Memoirs | |||||||
Paper Id :
19477 Submission Date :
2024-12-09 Acceptance Date :
2024-12-23 Publication Date :
2024-12-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited. DOI:10.5281/zenodo.14584885 For verification of this paper, please visit on
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सारांश |
सांस्कृतिक शब्द का सीधा संबंध मनुष्य की जीवन- शैली से है। यात्रा संस्मरणों में जिस समाज और देश का प्रसंग आता है, वहां की अलग-अलग संस्कृति और जीवन-व्यापार का गहन तथा आँखों देखा चित्रण होता है। सांस्कृतिक अध्ययन से किसी समाज के रीति-रिवाज, मूल-संस्कार, उत्सव, मूल्य-मान्यताएँ, रूढ़ियों, अंधविश्वासों, रहन– |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The word cultural is directly related to the lifestyle of a person. In travel memoirs, there is an in-depth and eye-witness account of the different cultures and lifestyles of the society and country mentioned. Cultural studies provide an understanding of the customs, rituals, festivals, values, superstitions, lifestyle, food habits, costumes, customs, etc. of a society, which develops an interest in knowing and understanding more about that society. | ||||||
मुख्य शब्द | संस्कृति, जीवन-शैली, यात्रा-संस्मरण, रीति-रिवाज, अयनोत्सव, विश्वास। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Culture, Lifestyle, Travel Memories, Customs, Aynotsav, Beliefs. | ||||||
प्रस्तावना | सांस्कृतिक शब्द का अर्थ है –‘संस्कृति से जुड़ा’। संस्कृति शब्द ‘कृ’ (करना ) धातु से बना है। संस्कृति, संस्कृत भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है’ परिष्करण’ अथवा ‘शोधन’, ‘परिष्करण’ ‘अथवा शोधन का अर्थ है ‘साफ करना’। अर्थात् ‘अपने अंदर के बुरे विचारों
का अंत करके अपनी आत्मा को शुद्ध करना’।‘ संस्कृति’ का शाब्दिक अर्थ है, ‘उत्तम या सुधरी हुई’। संस्कृति समाज और जीवन के विकास के मूल्यों की सम्यक संरचना है। यह समाज में
मौजूद गुणों और उत्तम आदर्शों के रूप का नाम है,जो उस समाज के सोचने विचारने, कार्य करने, खाने पीने, बोलने, नृत्य,गायन, साहित्य, वास्तु और कला आदि में परिलक्षित होती है। यह किसी समाज में पाए जाने वाले
उच्चतम मूल्यों और आदर्शों की ऐसी चेतना है जो सामाजिक प्रथाओं, रीति रिवाजों, मूल्य, विश्वास, पौराणिक कथाएँ, आध्यात्मिक अभ्यास, चित्तवृतियों, मनोभावों, आचरण, खान-पान, वेशभूषा, पर्व, त्योहार, उत्सव और रहन-सहन के साथ-साथ उनके द्वारा भौतिक पदार्थों
को विशिष्ट रूप दिए जाने में अभिव्यक्त की जाती है।अंग्रेजी में संस्कृति के लिए‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग किया गया है
जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘विकसित करना या परिष्कृत करना’। यह शब्द लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है।
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोध पत्र का मूल
उद्देश्य संस्कृति के महत्व को सबके समक्ष उजागर करना तथा लोगों का इस ओर ध्यान
आकर्षित करना है।
यात्रा संस्मरणों के सांस्कृतिक विवेचन से विभिन्न मानवीय सम्बन्धों, संस्कारों, भाषाओं
व इतिहास की परतों में मौजूद उनके मूल उत्स, आचार- विचार आदि को
जानना। आज के
युवा-वर्ग में अपनी संस्कृति के प्रति जागरूकता पैदा करना ताकि वो इसके संरक्षण
में अपना योगदान दें। |
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साहित्यावलोकन | संस्कृति अत्यंत गंभीर भाव है। वास्तव में संस्कृति संस्कार और परंपरा से जुड़ी होती है। सभ्यता और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि सभ्यता शरीर है, तो संस्कृति उसकी आत्मा है। संस्कृति का अर्थ ग्रहण हम जीवन मूल्यों और जीवन जीने के तरीके से करते हैं लेकिन यह भी सच है कि संस्कृति मूल्य अथवा मान्यता से आगे आंतरिक आस्था पर निर्भर है। साहित्य समाज का दर्पण है तो संस्कृति उसका अंतस् तत्व। दिनकर जी की रचना 'संस्कृति के चार अध्याय' की प्रस्तावना में जवाहरलाल नेहरू ने संस्कृति की विभिन्न परिभाषाएं सुझाई है- ‘संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गई हैं उनसे अपने आप को परिचित करना संस्कृति है। संस्कृति शारीरिक और मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है। यह मन, आचार अथवा रुचियों की परिष्कृति या शुद्धि है। यह सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है। इस अर्थ में, संस्कृति कुछ ऐसी चीज का नाम हो जाता है जो बुनियादी और अंतर्राष्ट्रीय है। फिर संस्कृति के कुछ राष्ट्रीय पहलू भी होते है और इसमें कोई संदेह नहीं कि अनेक राष्ट्रों ने अपना कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व तथा अपने भीतर कुछ खास ढंग के मौलिक गुण विकसित कर लिए हैं।“1 (इससे पता चलता है कि संस्कृति किसी भी समाज की सिर्फ बाहरी विशेषता नहीं है। यह मनुष्य के आंतरिक और मानसिक विकास की भी परिचायक है। सभ्यता के श्रेष्ठ आचार - विचार और मान्यताएँ संस्कृति है जो किसी देश विशेष की सीमाओं से मुक्त है। यह अलग बात है कि हर संस्कृति की कुछ अपनी विशेषता होती है जो उसे अन्ये संस्कृतियों से अलग करती है।) हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार -"मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएं ही संस्कृति है।"2 (इसका अर्थ यह है कि मनुष्य की संस्कृति उसके जीवन के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष को दिखती हैं और मानव जीवन में सत्य तथा सुंदर की प्राप्ति की ओर अग्रसर करती है।) |
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मुख्य पाठ |
संसार के सभी देशों की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है। भारतीय संस्कृति की बात की जाए तो विविधता और समन्वयता इसके विशिष्ट पहलू है। सत्य, अहिंसा, परोपकार, त्याग, करुणा आदि जीवन के शाश्वत मूल्य इसमें समाहित हैं। भारतीय संस्कृति में नदियों के प्रति पवित्र आस्था और विश्वास रहा है उनको माता की तरह पूज्य माना जाता है। गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों किनारे स्थित स्थानों को तीर्थ स्थल मान लिया गया है। जब भी नदी की बात आती है तो अमृतलाल वेगड़ जी का नाम मन में कौंध जाता है। वेगड़ जी ने नर्मदा यात्रा पर तीन रचनाएं लिखी है - 'सौंदर्य की नदी नर्मदा', 'अमृतस्य नर्मदा', 'तीरे तीरे नर्मदा'। वेगड़ जी की ये यात्राएं कोई स्थूल नदी की परिक्रमा मात्र नहीं है ये एक पुरातन संस्कृति का प्रवाहमयता का आंखों देखा चित्रण है। नदी के साथ-साथ चलते हुए उन्होंने किनारे बसे गांवों की संस्कृति और लोक जीवन का भी परिचय दिया है। इन यात्रा - संस्मरणों में नर्मदा किनारे लगने वाले मेलों, मन्दिरों, घाटों, तीर्थ स्थलों, ग्रामीण परिवेश, लोग संगीत, लोग संगीत आदि का हृदय - स्पर्शी चित्रण हमारे सामने प्रस्तुत किया है – "मुंडी में देर रात तक लोक नृत्य देखते रहे। पुरुष 'सैला' नाच रहे थे। हाथ में लकड़ी के बने चटकोला बजाते हुए नाच रहे थे और गा रहे थे। उनका बलिष्ठ देहलय देखते ही बनता था। पुरुष थक गए तो स्त्रियों ने 'रीना' शुरू किया। फिर दोनों ने मिलकर 'करमा' नाचा। पुरुषों का सैला, स्त्रियों का रीना और दोनों का सम्मिलित करमा। आज हमें तीनों नृत्य देखने को मिले।"3 निर्मल वर्मा ने 'अमृतस्य नर्मदा' की प्रस्तावना में वेगड़ जी के बारे में लिखा है कि -"उन्होंने एक नदी की यात्रा में भारत की कितनी छवियां, दृश्य, लोग - एक समूची संस्कृति की रासलीला का अमृत रस छक लिया है।"4 इन्होंने वेगड़ जी को 'भारतीय लोक - संस्कृति का घूमता फिरता संदेश वाहक' कहा है। अभय मिश्र और पंकज रामेंदु ने गंगा किनारे स्थित नगरों जो गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक है का वर्णन करते हुए उनके सांस्कृतिक - ऐतिहासिक महत्व तथा वर्तमान दशा का एक मर्मस्पर्शी वर्णन छोटी - छोटी कहानियों के माध्यम से अपने यात्रा संस्मरण में किया है। हिंदू संस्कृति की परंपराओं से गहराई से जुड़े हरिद्वार के बारे में मान्यता है कि भगवान विष्णु के पैरों के निशान हर की पेड़ी की ऊपरी दीवार पर लगे पत्थर पर है जहां पवित्र गंगा हर समय इसे छूती है। हरिद्वार के महत्व का उल्लेख करते हुए अभय मिश्र और पंकज रमेंदु ने 'दर-दर गंगे' में लिखा है- "हरिद्वार अस्थि विसर्जन का मुख्य केंद्र है रोजाना यहां हजारों लोग अस्थियां लेकर आते हैं और मोक्ष प्राप्ति की पुष्टि कर लेते हैं मन में थोड़ा सा भी शक अगर रह जाता है तो उसे दूर करने का जिम्मा यहां के पंडित उठा लेते हैं हर आने वाले को इस कदर आश्वस्त कर देते हैं कि यहां से आगे हरि के द्वार तक उन्हीं की चलती है।"5 'हंसते निर्झर दहकती भट्ठी' में 'विष्णु प्रभाकर' द्वारा 'दक्षिण- पूर्वी देशों का सांस्कृतिक जीवन' नामक शीर्षक के अंतर्गत दक्षिण पूर्वी देशों बर्मा, थाईलैंड, कंबोडिया और वियतनाम आदि में भारतीय संस्कृति और चीनी संस्कृति के प्रभाव के साथ-साथ पाश्चात्य प्रभाव पर दृष्टिपात करते हुए वहां के उत्सव, संस्कारों के मूल में आज भी हिंदू सांस्कृतिक मूल्यों की उपस्थिति दिखाई है – "बर्मा, थाइलैंड और कंबोडिया में कुछ हिन्दू - संस्कार अभी भी किसी न किसी रूप में प्रचलित हैं। हिंदू देवी- देवताओं का प्रभाव भी किसी न किसी रूप में बना हुआ है। बर्मा में जन्म कुंडली बनाने की प्रथाएं है और नामकरण राशि के अनुसार होता है। थाइलैंड और कंबोडिया में आज भी दाह संस्कार होते हैं। विवाह संस्कार पर भी थाइलैंड, कंबोडिया और दक्षिण वियतनाम जैसे देशों में भारत का प्रभाव अभी तक दिखाई देता है। भारत की तरह ही विवाह मंडप बनाया जाता है और बुजुर्ग लोग शंख द्वारा वर वधू पर जल छिड़ककर उनको आशीर्वाद देते हैं। प्रेम विवाह का प्राधान्य होने पर भी कंबोडिया और वियतनाम में अभी तक माता पिता की सलाह ली जाती है। कंबोडिया में भारत की तरह वर्ष में एक बार अमावस्या को श्राद्ध जैसी प्रथा प्रचलित है। बौद्ध धर्मावलंबी होने पर भी यहां राजा को राज्याभिषेक के समय एक हाथ में शिव और दूसरे हाथ में विष्णु की मूर्ति धारण करनी होती है।"6 इसी में आगे विष्णु प्रभाकर जी कहते है -"बर्मा और थाइलैंड में प्रत्येक पुरुष को जीवन में एक बार भले ही सात दिन के लिए हो, भिक्षु होना पड़ता है। वह दीक्षा-समारोह उसी प्रकार मानते हैं, जिस प्रकार हमारे यहां विवाह का उत्सव। लेकिन यहां के भिक्षु हमारे देश के साधुओं की तरह सर्वस्वत्यागी ही नहीं माने जाते, वे चुरट पी सकते हैं और सिनेमा देख सकते हैं। भोग और भक्ति का ऐसा समन्वय बहुत कम दिखाई पड़ता है। बर्मा में प्रत्येक मास में एक त्योहार मनाया जाता है। उसमें नवें महीने में जो त्योहार पड़ता है उसमें हिन्दू देवताओं का पूजन होता है। विशेषकर महापइन्हे अर्थात् महाविनायक गणेशजी का पूजन होता है।"7 'रामायण' और ‘महाभारत' हिन्दू धर्म के महाकाव्य है। इन पौराणिक पुस्तकों की कहानियों का संबंध और प्रभाव सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। इन्होने विदेशी धरती पर भी अपना प्रभाव छोड़ा है। इसका जीता जागता प्रमाण कंबोडिया और मॉरीशस है। मॉरीशस के लोगों में आज भी अपने मूल स्थान भारत और उससे जुड़ी प्रत्येक चीज के प्रति गर्व और सम्मान का भाव है। आज भी उनके घर के मंदिरों में ‘रामायण’ की प्रति मिल जाती है। डॉ कुसुम खेमानी ने 'कहानियां सुनाती यात्राएं' नामक अपने यात्रा संस्मरण में' विदेशी धरती पर हमारे मन्दिरों के ठाठ -अंकोरवाट ' शीर्षक के अंतर्गत कंबोडिया में स्थित बौद्ध और हिंदू संस्कृति की मिलीजुली स्थापत्य और संस्कृति का प्रतीक 'अंकोरवाट' मंदिरों का उल्लेख करते हुए लिखा है- "जिन मंदिरों की छाप सदा के लिए हमारे मन पर छप गई है वह है' अंकोरवाट' और 'बाफ्यू अन मंदिर'। जब हमने राजा उदयादित्य द्वितीय (1050-66) तक बनाया हुआ 'बाफ्यू अन मंदिर ' देखा तो अवाक् रह गए।यहां की कारीगरी सातवाहन से आगे होती हुई 'खजुराहो' तक जा पहुंचती है।छत पर मेहराबदार शहतीरें नक्काशी से भरी हुई है। दरवाजे की चौखट ऐसी कि सब वाह! वाह! करने लगे। पर अंकोरवाट अंकोरवाट ही है इसका सुडौल संतुलन....हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित पंच शिखरी उत्थान ......मध्य शिखर का ऊंचा होकर ब्रम्हांड के मध्य में स्थित सुमेरु पर्वत का प्रतिनिधित्व करना.... शिखर में 'देवताओं का आवास' आदि सर्वदा स्मरणीय है। यह पांच शिखरी मंदिर ब्रह्मा का देश भी माना गया है। इस पर खुदी हुई 'सागर मंथन' की कृति अपनी संपूर्ण गतिविधियों के साथ दर्शक को रोमांचित कर देती है। इसकी पश्चिमी दीर्घा में महाभारत के कुरूक्षेत्र का विशद् वर्णन है जिसमें अन्य दृश्यों के साथ श्री कृष्ण का चक्र धारण करना और भीष्म का शरशय्यासायी होना भी सम्मिलित है। इसी कोने से रामायण आरंभ हो जाती है। आश्चर्यजनक ढंग से पश्चिमी दीर्घा में जहां कुरुक्षेत्र युद्ध दिखाया गया है। उसके समकक्ष ही लंका का युद्ध भी दिखाया गया है।दोनों तिकोनों पर जहां ये दीर्घाएं मिलती है, वहां अधिकांशत: रामायण के दृश्य है।"8 इस से विदित है कि संस्कृति किसी विशेष जाति, धर्म और देश के दायरे में बंधी नहीं है। यह निरन्तर परिवर्तित और विकसित होती है तथा अन्य देशों और समाजों को प्रभावित भी करती है और उससे प्रभावित होती है। दक्षिण- पूर्वी देशों में कई संस्कृतियों का प्रभाव पड़ने के कारण उनकी स्वयम की संस्कृति खतरे में पड़ गई, लेकिन यह देश अपने संस्कारों से अब तक जुड़े हुए है। इन यात्रा संस्मरणों के सांस्कृतिक विवेचन के अंतर्गत विभिन्न देशों की संस्कृतियों के उत्सवों,मूल्यों, त्योहारों, संस्कारों, रीति रिवाजों, प्रचलित अंधविश्वासों आदि की जानकारी मिलती है। इन स्वरूप थोड़े परिवर्तन के साथ सभी समाजों में समान सा दिखाई पड़ता है। इससे पता चलता है कि इन संस्कारों का उद्गम स्त्रोत एक ही रहा है। समय के साथ इनमें देश और समाज के अनुसार परिवर्तन हो गया है। 'एक बूंद सहसा उछली' रचना में अज्ञेय ने 'यूरोप की अमरावती रोमा' शीर्षक के अंतर्गत यूरोप की धार्मिक आस्था की तुलना भारत की धार्मिक आस्था से करते हुए 'फोन्ताना दी त्रेवा' की तुलना दिल्ली के 'हड़िया पीर' से करते है और बताया है कि वहां पर यात्री पानी में सिक्का फेंक कर मन्नत मांगते हैं और प्रेमी जोड़ों की भीड़ भी वहां लगी रहती है। असुरक्षा का भाव कहीं भी आ सकता है। इसलिए लोग सिक्का या अपनी कोई अन्य कीमती चीज पानी में उछाल कर मनोकामना करते हैं और ये मनोकामनाएं करने वाले सबसे ज्यादा प्रेमी युगल होते है। भारत में भी धार्मिक तीर्थों के आसपास स्थित नदी या झील में सिक्का फेंककर मनोकामना मांगने का रिवाज है। अज्ञेय इसी रचना के 'धर्म विश्वासों की गोधूलि' शीर्षक में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के धर्म और विश्वासों की तुलना की है। जब से मानव ने लोहे के हथियार बनाए और उनसे वन्य जीवों से सुरक्षा प्राप्त की है तभी से लोहे की शक्ति पर लोगों का धार्मिक विश्वास रूढ़ हो गया है- "आयरी उपकथाओं में परियों के जादू से बचने के लिए लोहे का उपयोग लोक विश्वास का अभिन्न अंग है।... घरों के द्वार पर घोड़े की नाल टांगने का कारण उसका नाल होना ही नहीं है, बल्कि लोहे की होना भी है। घर के भीतर गर्भवती स्त्रियां सिरहाने लोहे की छुरी या अन्य वस्तु रखती हैं, और माना जाता है कि इससे माता और शिशु दोनों सुरक्षित रहते हैं।"9 अज्ञेय ने आयरलैंड के अयनोत्सव और होली के समान क्रियाकलापों पर दृष्टिपात करते हुए बताया है– "इसी शीतकालीन ऋतु -उत्सव अथवा अयनोत्सव का दूसरा अंग और भी रोचक था। दूसरे दिन लोग टोली बांधकर रेन पक्षी के शिकार पर निकलते थे। रेन खंजन से मिलता जुलता छोटा सा पक्षी है और यहां की किंवदंती के अनुसार वह 'भगवान की मुर्गी' होता है। शिकार करनेवाली टोलियों में कुछ लोग विदूषक की पोशाकें पहनते थे, कुछ पुआल और वल्कल, और कुछ स्त्री वेश धारण करते थे। अधिकतर लोगों के हाथ में लकड़ी की तलवारें होती थीं। पूरी टोली का रूप कुछ कुछ वैसा ही अनुमान किया जा सकता है जैसा कि उत्तर भारत के देहातों में होली के अवसर पर देखी जाने वाली टोलियों का होता है। और कदाचित् दोनों का मूल विश्वास भी मिलता जुलता ही रहा। क्योंकि इसमें संदेह नहीं कि टोलियों के पुरुष और स्त्री वेशधारी लोगों का भाग लेना, काठ की तलवारों या छड़ियों का प्रयोग, और ' भगवान की मुर्गी ' के शिकार का प्रतीक, सभी उर्वरता संबंधी आदिम विश्वासों के प्रतिबिंब हैं - उर्वरता भूमि की भी और भुमि-सुता नारी की भी।"10 अज्ञेय ने 'बीस हजार राष्ट्र कवि' नामक अध्याय में वेल्स की यात्रा के दौरान 'आईस्तेद्वद' नामक राष्ट्रीय उत्सव का वर्णन किया है और लोक-संस्कृति की रक्षा के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयास 'कार्डिफ़ का लोक-संस्कृति संग्रहालय' जहां वेल्स के लोक जीवन को उसके वास्तविक रूप में संरक्षित किया गया है, का भी उल्लेख किया है। लोक संस्कृति तथा परम्पराओं के वाहक सामान्य जन या ग्रामीण जन होते है। अज्ञेय जी कहना चाहते है कि हमें अपनी परंपरा और पुरातन संस्कृति के प्रति सम्मान और संरक्षण का भाव रखना चाहिए और सरकार भी इनको योजन बनाकर सुरक्षित रखे। अज्ञेय जी ने बताया है कि 'आईस्तेद्वद' वेल्स का राष्ट्रीय उत्सव है जो छह दिन का होता है जिसमें किसान - मजदूर से लेकर विश्वविद्यालय के आचार्य तक, बच्चे लेकर बूढों तक सभी उत्साह से भाग लेते है। यहां की जनसंख्या (20 लाख)का एक प्रतिशत (20 हजार) लोग इसमें भाग लेते है। इस उत्सव को सरकारी सहायता प्रदान नहीं होती है। यह वेल्स जाति का सांस्कृतिक उत्सव है – "आईस्तेद्वद में कई भिन्न भिन्न प्रतियोगिताएं सम्मिलित हैं : दो काव्य-रचना की अर्थात् एक प्राचीन रीति की कविता और एक मुक्त, यद्यपि वेल्स में 'मुक्त' का अर्थ है वह कविता जिसमें केवल छंद और तुक का बंधन है; प्राचीन पद्धति में तो इनके अतिरिक्त और कई नियमों का निर्वाह होता है। एक प्रतियोगिता गद्य की, एक काव्य गायन की, दो-तीन समवेत-गान की, जिसमें पुरुष-वृन्द और स्त्री-वृंद अलग-अलग गाते हैं; फिर विशिष्ट वेल्स वाद्यों के वादन की, संगीत - निर्देशन की, नाटक - रचना और अभिनय की, इत्यादि। इधर उत्सव ने जो अधिक व्यापक रूप ले लिया है, उसमें सांस्कृतिक कार्यों के आस-पास और भी कई प्रतियोगिताओं का वृत बन गया है जिसमें विद्यार्थी-समुदाय भाग लेता है।"11 निर्मल वर्मा ने 'चीड़ों पर चांदनी' रचना में आइसलैंड के सांस्कृतिक विकास में 'सागा ग्रन्थों' के साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्व को उजागर किया है। उस समय ज्ञान और शिक्षा के साधनों पर ईसाई संघों और चर्च का अधिकार था लेकिन 'सागा ग्रन्थ' अधार्मिक और ईसाई दर्शन और चिंतन से बिल्कुल अप्रभावित है। इनके रचयिता और संरक्षक सामान्य किसान थे – "साहित्य की इन अमूल्य निधियों के रचयिता अज्ञात है। आज इनके लेखकों का नाम मालूम नहीं हो सकता है। गरीब किसानों ने (12वीं -13वीं शताब्दी में) इन्हें अपने झोपड़ों में बैठकर लिखा था। पीढ़ी दर पीढ़ी सर्दी की लंबी शामों में इन्हें पढ़ा और सुना जाता था। दरअसल सागा ग्रन्थों की शैली कुछ ऐसी है, जिसका पूरा रसास्वादन चुपचाप अकेले पढ़ने की अपेक्षा बहुत लोगों के बीच बैठकर सुनने में अधिक मिलता है। पुराने समय में सागा-पाठ अतिथि-सत्कार का मुख्य अंग माना जाता था।“12 नसीरा शर्मा ने 'अफगानिस्तान बुजकशी का मैदान' में अफगानिस्तान के साहित्य, संस्कृति, भाषा और वर्तमान तक की यात्रा के विभिन्न पड़ावों का उल्लेख करते हुए वहां के लोगों स्वाभिमान, वतन के प्रति गर्व और आपसी सौहार्द तथा भारत के साथ उसके संबंध जिसमें धर्म, दर्शन, कला, भाषा, साहित्य आदि को शामिल किया है। अपने संस्कारों से जुड़े रहने का उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है – "हिन्दू -अफगानों के रहन-सहन को लेकर उनसे बहुत बातचीत में जो तथ्य सामने आए वे काफी दिलचस्प है। मेरे पूछने पर कि अफगान होने के नाते तो आपका खानपान भी उन्हीं की तरह होगा और भी मांसाहारी हो गए होंगे, उन्होंने बड़े गुरूर से कहा कि जी, हम अफगान हैं और गोश्तखोर हैं, मगर हममें शाकाहारी भी मौजूद हैं। अलबत्ता संख्या में वे तो कम हैं। जो लोग मांसाहारी हैं, वे भी मंगलवार को शाकाहारी बन जाते है।"13 वर्तमान में युवा वर्ग पाश्चात्य संस्कृति से प्रभाव ग्रहण कर अपनी संस्कृति भूल रहे है। उन्हें अपनी संस्कृति के प्रति हीनता का बोध होता है। उन्हें दक्षिण पूर्वी देशों से सीखना चाहिए। विष्णु प्रभाकर ने बताया है कि बर्मा, वियतनाम और मलाया आदि देशों ने अभी भी अपनी राष्ट्रीय पोशाक नहीं छोड़ी है। अपने यात्रा संस्मरण ‘हँसते निर्झर दहकती भट्ठी’ में उन्होने लिखा है – "जिस प्रकार हमने बर्मा के पैगोडाओं में धर्मप्राणा बर्मी नारियों की भीड़ देखी, उसी प्रकार पश्चिम की संस्कृति से आक्रांत थाईलैंड में भी वहां की आधुनिकताओं को वाटों अर्थात् बौद्ध मंदिरों में साष्टांग प्रणाम करते देखा है। मातृमूलक समाज होने के कारण इन देशों में परदे की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इस्लाम स्वीकार कर लेने पर भी मलाया ने बुर्के को स्वीकार नहीं किया है।"14 जहां अंग्रेजी भाषा बोलना आजकल का फैशन हो गया है तथा कंपनियां भी उन्हें ही रोजगार देने में प्राथमिकता देती है जो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना जानता हो। वहीं अपनी मातृभाषा में बात करने वाले को आज के तथाकथित सभ्य समाज में अनपढ़ और गंवार समझा जाता है। उन्हें बंगालियों से सीखना चाहिए। निर्मल वर्मा ने अपनी आइसलैंड यात्रा के अनुभव बताते हुए कहा है कि – "आइसलैंड का दो चीजों के प्रति गहरा लगाव अद्भुत है बीयर और अपनी भाषा। अपनी भाषा के प्रति ललक और प्यार मैंने अपने देश में बंगालियों में और यूरोप में आइसलैंड - निवासियों से अधिक और कहीं नहीं देखा.... भारत में मेरे सबसे स्नेही और आत्मीय मित्र बंगाली और यूरोप में आइसलैंडी रहे हैं। दोनों मंडलियों में घंटों गुजारने का अवसर मिला है और गो वे हमेशा आपस में अपनी भाषा में बातचीत करते हैं। "15 |
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निष्कर्ष |
उक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि हमें अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और संस्कारों से जुड़े रहना चाहिए। सांस्कृतिक मूल्य और आदर्श किसी भी संस्कृति की अपनी महत्त्वपूर्ण निधियों और संपत्तियों का संग्रह है, जिसे आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित और सुरक्षित रखना नागरिक और सरकार दोनों की जिम्मेदारी है। इन यात्रा संस्मरणों का साहित्यिक और सांस्कृतिक अवलोकन हमें विभिन्न समाजों और संस्कृतियों की पृथक पृथक जीवन शैली और विशिष्ट परम्पराओं, मान्यताओं की गहरी समझ प्रदान केरता है। मानव सभ्यता की समृद्धि, उसके विविध आयामों, मानवीय सबंधों और निहित उसमें विविधता को समझने और अंगीकार करने के कलात्मक, सरहनीय व सशक्त माध्यम है जो समझ और के साथ पाठक में रोचकता और उत्सुकता बनाए रखते है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची |
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