ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- IX , ISSUE- VIII November  - 2024
Anthology The Research
बालक की संवेदनाएं, कल्पनाशीलता और रचनात्मकता
Sensitivities, Imagination and Creativity of the Child
Paper Id :  19452   Submission Date :  2024-11-09   Acceptance Date :  2024-11-21   Publication Date :  2024-11-25
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DOI:10.5281/zenodo.14504833
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चानण मल
शोधार्थी एवं सहायक आचार्य
चित्रकला विभाग
राजकीय महाविद्यालय, नदबई
भरतपुर, राजस्थान, भारत
सारांश

बालकों में रचनात्मकता के विकास हेतु संवेदना और कल्पना शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से संवेदना की उत्पत्ति होती है, तथा संवेदना के द्वारा कल्पना की उत्पत्ति होती है। ये दोनों मानसिक क्रियाएं हैं। बालक में कल्पना की अवस्थाएं दो प्रकार की होती है, पुनरावर्त्यात्मक कल्पना और रचनात्मक कल्पना। रचनात्मक कल्पना के माध्यम से नवीन रूपों, छवियों आदि का उद्भव होता है। बालकों में दृश्य-प्रतिमा अधिक रहती है। बालकों की कल्पनाएं सीमित, मूर्त, वस्तुनिष्ठ, अतियथार्थवादी, अवास्तविक, प्रतिकात्मक और अस्थाई होती है। बालक अपनी रचनात्मक कल्पनाओं अभिव्यक्ति अपने अपने खेलों, अभिनयों, कहानियों तथा चित्रकला में मुख्य रूप से करता है। खेलों में बालक विभिन्न खिलोनों की कल्पना करता है, अभिनय में स्वयं की कल्पना एक हिरो के समान करता हैए कहानियों में वह काल्पनिक पात्रों, दृश्यों व घटनाओं की कल्पना करता है। चित्र सृजन के समय बालक विभिन्न प्रकार के व्यक्तिगत रूपों की कल्पना करता है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Sensitivity and imagination play an important role in the development of creativity in children. Sensitivity is generated through the sense organs and imagination is generated through sensation. Both of these are mental activities. There are two types of stages of imagination in a child, repetitive imagination and creative imagination. New forms, images etc. emerge through creative imagination. Children have more visual images. Children's imaginations are limited, concrete, objective, surrealist, unrealistic, symbolic and temporary. A child expresses his creative imagination mainly in his games, acting, stories and painting. In games, the child imagines various toys, in acting he imagines himself like a hero, in stories he imagines imaginary characters, scenes and events. While creating a picture, the child imagines various types of personal forms.
मुख्य शब्द संवेदना, कल्पना, प्रत्यक्षीकरण, रचनात्मकता, पुनरावृत्यात्मक, किंडर-गार्डन, अविष्कारपरक, अति-यथार्थवादी, अवचेतन, मानस-प्रत्यक्षण, प्रलौकिक, आमोदवश ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Sensation, Imagination, Perception, Creativity, Repetitive, Kindergarten, Inventive, Surrealist, Subconscious, Visualization, Mundane, Amusement.
प्रस्तावना

बालकों की संवेदनाएं और कल्पनाशीलता उसके रचनात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संवेदना एक मानसिक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से हमें अपने आसपास के वातावरण में उपस्थित उत्तेजना का किंचित आभास होता है जिससे हम अपनी भावनाओं, अनुभवों तथा विचारों को समझ कर उसकी अभिव्यक्ति करते हैंअनुभवों का प्रथम रूप इंद्रिय-संवेदन है। जब कोई बाह्य वस्तु हमारी ज्ञानेंद्रिय को प्रभावित करने लगती है तो वे इंद्रिय-संवेदन कहलाते हैं।[1] उत्तेजना जब ज्ञानेंद्रिय के संपर्क में आती है तो हमारी संबंधित ज्ञानेंद्रिय में उद्वेग उत्पन्न होता है, तथा हमारे स्नायु तंत्र में गति का आभास होता है जो हमारे मस्तिष्क के संवेदी क्षेत्र में संचारित होकर संवेदना को जागृत करता है। यह हमारे मन की चेतना शक्ति है। 

बालको में ज्ञानात्मक शक्ति का अभाव होता है तथा उसकी भावनात्मक शक्ति अधिक सक्रिय रहती है, अतः बालक अपने सामने उपस्थित उत्तेजना का सरलता से पूर्वज्ञान नहीं कर पाता, जिससे उसमें संवेदना की उपस्थिति अधिक विशुद्ध रूप से तथा लम्बे समय तक विद्यमान रहती है।  

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य बालक की संवेदनाएं, कल्पनाशीलता और रचनात्मकता का अध्ययन करना है

साहित्यावलोकन

रचनात्मकता हेतु संवेदना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि बिना संवेदना के अवलोकनप्रत्यक्षीकरण और कल्पना का उद्भव संभव नहीं हैजो रचना-प्रक्रिया के आवश्यक घटक है। बालक सामान्य व्यक्तियों से अधिक संवेदनशील ढंग से विचार करता है, क्योंकि उसकी कल्पना-शक्ति अधिक गतिशील एवं सशक्त होती है। वह बाह्य जगत के गूढ़ स्वरूपों के प्रति अनभिज्ञ रहता है। वह सामान्य रूपों को भी व्यक्तिगत ढंग से देखता है, जो अधिक कलात्मक होते हैं। यही गुण एक कलाकार का भी होता है। प्रायः यह सुनने में आता है कि कलाकार संवेदनशील व्यक्ति होता है इसका तात्पर्य यह है कि वह संस्कृति के क्रियाकलाप का अन्वेषण और परीक्षण करता है तथा उससे सहानुभूति पूर्ण ढंग से प्रभावित होता है।[2]

मुख्य पाठ

बालक भी एक संवेदनशील प्राणी हैउनकी संवेदनाएं भी रचनात्मक होती हैबालक की संवेदनाओं में उनके विचारोंभावों, अभिरुचियों, स्वप्नों आदि की अभिव्यक्ति होती है, जिन्हें वह कहानियों, कविताओं, चित्रों, खेलों आदि के माध्यम से व्यक्त करता है। बालक की रचनात्मक संवेदनाएं उसके विशेष दृष्टिकोण को प्रकट करती है। बालकों में रचनात्मक कल्पना का विकास उसकी संवेदनाओं के अनुरूप ही होता है। बालक में कल्पना की प्रक्रिया का प्रारंभ संवेदना उत्पत्ति के पश्चात होता है। कल्पना क्षणिक संवेदना को स्थायित्व प्रदान करती है। 

बालकों में इस कल्पना-शक्ति का विकास नवीन अनुभवों के समानांतर होता है। पूर्वानुभव व स्मृति के अभाव में कल्पना की उत्पत्ति होना असंभव हैतथा बिना प्रत्यक्ष दर्शन के कल्पना करना मुश्किल है। बालक ने जिस वस्तु का पूर्वानुभव नहीं किया होउसकी कल्पना वह नहीं कर पाता। रचनात्मक कार्यों हेतु कल्पना आवश्यक है। सृजनात्मक अनुकरण कल्पना के अभाव में संभव नहीं है इसलिए सर्जन कार्य में कल्पना का महत्व सर्वाधिक है।[3] 

कल्पना उस मानसिक शक्ति का नाम है, जिसके द्वारा प्रत्यक्ष किए गए अनुभव का ज्ञान हमें उस अनुभव की अनुपस्थिति में होता है। विलियम जेम्स के अनुसार जब हमें कोई भी इन्द्रिय-ज्ञान होता है तो हमारे मस्तिष्क के स्नायु इस प्रकार प्रभावित होते है कि बाह्य पदार्थ के अभाव में हम उस पदार्थ का चित्र देखने लगते हैं।[4] कल्पना की दो अवस्थाएं होती हैपुनरावर्त्यात्मक और रचनात्मक। पुनरावर्त्यात्मक कल्पना पूर्ण कल्पना नहीं है, केवल हमारे मस्तिष्क पर वस्तु की बनने वाली छवि है, इसका मुख्य आधार प्रत्यक्ष दृश्य, स्मृति ही होता है। बालकों में अपनी प्रारंभिक अवस्था में इस प्रकार की कल्पना शक्ति विशेष रूप से विद्यमान रहती है। यह प्रतिमा श्रव्यदृश्यस्पर्श आदि की रूप में विद्यमान रहती है। चित्र सृजन हेतु दृश्य प्रतिमा की भूमिका सर्वाधिक रहती है। 

कल्पना की दूसरी अवस्था रचनात्मक कल्पना हैजिसका अर्थ है कि पुराने अनुभवों के आधार पर मानस में नवीन सृष्टि का निर्माण करना। जिसमें अंत:स्थल का विशेष योगदान रहता है। अतीत के प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा गृहीत बाह्य रूप हमारे मानस अवकाश में संग्रहित होता है, बाद में इसी रूप की प्रेरणा से हमारे अंत: स्थल में अन्य रूप का उद्भव होता है तथा दोनों के मिश्रण से जब कोई नवीन प्रकार के रूप का हमारे मानस पटल पर प्रकाशन होता है तो इसे रचनात्मक कल्पना कहा जाता है। जैसे बाग़ान में गुलाब के पुष्प देखते हैं तथा बाद में हम मानस पटल पर केवल उस पुष्प के मूल रूप का चित्रांकन ना करके उसकी कल्पना विभिन्न सुनहरे रंगों में करें तथा उस पर तितली मंडरा रही हैतो यह नवीन रूपाकृति रचनात्मक कल्पना कहलाती है। यही कल्पना का पूर्ण रूप है। 

किंडर गार्डन आयु तक बालक में पुनरावृत्यात्मक कल्पना की अधिकता रहती है तथा धीरे-धीरे उसमें रचनात्मक कल्पना का विकास होता है। रचनात्मक कल्पना मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं:- ग्रहणात्मक  अविष्कारपरक। 

जब कल्पना अन्य पुरुष के विचारों के आधार पर करते हैं तो उसे ग्रहणात्मक रचनात्मक कल्पना कहा जाता है। बालकों में रचनात्मक कल्पनाशीलता के प्रारंभिक चरण में इसी कल्पना की अधिकता रहती है। बालक इस प्रकार की कल्पना का अनुभव अपने परिवार में माता-पिता या अन्य वयोवृद्ध लोगों द्वारा सुनाई कथा-कहानियों और पुस्तकों में पढ़ीं कहानियों या चित्रों के द्वारा करता है। प्रारंभिक आयु में बालकों को प्रत्यक्ष-ज्ञान के अवसर काम उपलब्ध होते हैं अतः वह इस समय दूसरों के विचारों पर आधारित कल्पना ही करता है। जैसे दादी नानी की कहानियों के पात्रोंआकाश में उड़ने वाली परियों आदि की कल्पना। 

अविष्कारपरक रचनात्मक कल्पना, बालकों में मानसिक विकास के बाद की कल्पना शक्ति होती है, इस समय बालक व्यक्तिक अनुभवों तथा प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर कल्पना करता है तथा एक स्वतंत्र काल्पनिक जगत की सृष्टि करता है। इस उम्र में एक बच्चें भूत-प्रेत, परी-कथाएं जैसे रोमांचकारी वह अविश्वसनीय कल्पना लोक में विचरण करते रहते हैं। उक्त कल्पना शक्ति ही बालकों या वयस्कों को सृजन हेतु प्रेरित करती है। इस समय बालक में कलात्मक स्तर की कल्पना करने की क्षमता का विकास हो जाता है। जब बालक की भौतिक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु कल्पना ना कर स्वयं की मानसिक संतुष्टि या मानसिक आनंद प्राप्ति हेतु कल्पना करता है तो उसे कलात्मक कल्पना कहते हैं। बालकों के चित्रण कार्यखेलकहानियां आदि में इसी कल्पना का प्रकाशन होता है। ऐसे में बालकों के खिलौनेप्रिय वस्तुएं या कथा-कहानियों के पात्र ही उसके कल्पना के साथी होते हैं। 

बालक कल्पनाएं मानसिक आनंद प्राप्ति हेतु करता है। कभी-कभी जब बालक का मन व्याकुल एवं दुखी हो जाता है तो वह अपने मन में सुख की कल्पना द्वारा तात्कालिक दुख के प्रभाव को कम करने का प्रयत्न करता है। बालकों में कभी-कभी उनका अपर्याप्त एवं अधूरा चिंतन या ज्ञान भी कल्पना को जन्म देने में सहायक होता है, जैसे घोड़े को पंखों सहित आकाश में उड़ने की कल्पना, निर्जीव पदार्थ में सजीवता की कल्पना आदि। यदि बालकों में तर्क शक्ति या विचार करने की पूर्ण शक्ति होती है तो वह घोड़े के उड़ने का विचार करते समय यथार्थता व तर्क में उलझ जाता, तथा इस प्रकार की कल्पना कभी नहीं कर पाता।  

बाल कल्पना की विशेषताएं

  1. बालकों में प्रौढ़ों की अपेक्षा कल्पना शक्ति की बहुलता रहती है।  
  2. बालकों में भाषा विकास के पूर्व तक दृश्य प्रतिमा की अधिकता रहती है क्योंकि इस अवस्था में उनके अबोध मन पर सर्वाधिक प्रभाव प्रत्यक्ष दृश्य पदार्थ या घटना विशेष का पड़ता है।  
  3. बच्चों की कल्पनाओं का क्षेत्र अत्यधिक विस्तारित होता हैपरंतु सत्य ज्ञान के अर्थ में इसका क्षेत्र सीमित रहता है। तर्क व तथ्य ज्ञान के अभाव के कारण बालक की कल्पना प्रक्रिया बंधन रहित होती है। 
  4. बालकों का अनुभव क्षेत्र अत्यंत सीमित होता है। वह प्रत्यक्षदृष्टा वस्तु की कल्पना करने में समर्थ होते हैं जैसे यदि उसने कभी हाथी को नहीं देखा तो वह उसकी कल्पना नहीं कर पाएंगे। इस परिस्थिति में वह हाथी की कल्पना कुत्ताऊंट आदि के समान रूपों में करने का प्रयास करेंगे। जैसे-जैसे बालक का भाषायी ज्ञान बढ़ता हैवैसे-वैसे कल्पना शक्ति का विकास होता है। 
  5. बालक अमूर्त रूपों की कल्पना करने में असक्षम होता है, क्योंकि उसकी दृष्टि के समक्ष उपस्थित सभी वस्तुएं मूर्त अवस्था में ही विद्यमान रहती है। अतः बालकों की कल्पना वस्तुनिष्ठ होती है।कभी-कभी बालक दूसरों द्वारा सुनी कथा-कहानियोंचलचित्रों या पुस्तकों में वर्णित काल्पनिक पात्रों की कल्पना करता है, परंतु ये भी अमूर्त ना होकर अति-यथार्थवादी रूप होते हैं, जैसे परियां, उड़ते अश्वस्वर्ग-लोकअनेक हाथ व मुख वाले मानवमानव रूपी जानवरोंहाबू इत्यादि। बालक अनेक प्रकार के स्थलों, पदार्थोंविषयों तथा ऐसे संसार की कल्पना करते हैं जो इस ब्रह्मांड में कहीं भी अस्तित्व नहीं रखते। 
  6. कभी-कभी बालक अपनी शैशवावस्था में दीवारों, पुस्तकों आदि पर लकीरों के रूप में अमूर्त रूपों का चित्रण करता है, परंतु इसका संबंध उसकी कल्पना से कदापि नहीं होता। इसका आधार बालक की आमोदवशसहज-क्रीडा, अवचेतन की अभिव्यक्ति या व्यस्कों का अनुकरण करने की प्रवृत्ति होती है। 
  7. बालक वास्तविक व काल्पनिक पदार्थों में भेद नहीं कर पाता। वह काल्पनिक पात्रों को वास्तविक जीवन में स्वीकार कर लेता है। जानवरों द्वारा मानवीय भाषा में संवाद करना भी उन्हें यथार्थ लगता है। अतः इसी भ्रमवश वह कभी-कभी कल्पनाओं को वास्तविक समझने लगता है। तथा काल्पनिक जगत के अनुरूप या मार्गदर्शन द्वारा ही वह वास्तविक जीवन में व्यवहार करने लगता है। बालकों की इसी विशेषताओं के कारण उनकी कल्पनाएं अत्यधिक प्रबल, स्पष्टऔर सजीव होती है।  
  8. बालकों की कल्पनाओं में स्थायित्व का अभाव पाया जाता है अर्थात उनकी कल्पना स्थिर ना होकर चंचल, गत्यात्मक व परिवर्तनशील होती है। उसमें वह यथार्थ जीवन के सभी नियमों के बंधन से मुक्त रहता है, जैसे बालकों की कल्पना में घोड़ा दौड़ते-दौड़ते आसमान में उड़ने लगता है, फिर उड़ते-उड़ते हवाई जहाज में परिवर्तित हो जाता है। उनकी कल्पना में वस्तु का स्वरूप-परिवर्तन बालक के संवेग वह मन स्थिति के अनुरूप होता है। उनकी कल्पना में क्रमबद्धता का अभाव रहता है। बालक एक विषय की कल्पना करते-करते किसी अन्य विषय की कल्पना करने लग जाता है। बालक कल्पना के माध्यम से आत्म-प्रकाशन करता है। वह अपने विचारों को सौंदर्यात्मक व रचनात्मक ढंग से प्रकाशित करता है। 
  9. बालकों की कल्पनाएं प्रतीकात्मक होती है। वह संसार की वस्तुओं को प्रतीक रूप में देखता है तथा उन्हीं के अनुरूप कल्पना करता हैजैसे सूखे पेड़ के तने को मानवघोड़ा या भूत-प्रेत समझनारस्सी या बेल में सर्प का बोध आदि। इन सभी प्रतीकात्मक भावबोध में बालक वास्तविक वस्तुओं के समान ही आनंद का अनुभव करता है। वह एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के प्रतीक रूप में कल्पना बहुत ही सरल ढंग से करता है।  

कल्पना बालक के व्यक्तिकनैतिक चारित्रिक तथा सामाजिक विकास में सहायक होती है। कल्पना की प्रबलता उसे भावात्मक गुण प्रदान करती है जिससे बालक में दयाप्रेम आदि चारित्रिक गुणों का विकास उचित प्रकार से हो पाता है। कल्पना के माध्यम से बालक अपने विचारों को सौंदर्यात्मक व रचनात्मक ढंग से प्रकाशित करने में समर्थ होता है। कल्पना कविता, कला-साहित्य आदि के सृजन का मुख्य आधार होती है। बालक अपनी रचनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति चित्रांकनखेलकहानीअभिनय आदि के माध्यम से करता है। 

कला में रचनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति

कला सृजन प्रक्रिया में रचनात्मक कल्पना का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहता है। अवलोकन व प्रत्यक्षीकरण के बाद यदि कल्पना का उचित संयोजन नहीं होता है तो रचनात्मक अभिव्यक्ति की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो पाती है अर्थात रचनात्मक अभिव्यक्ति हेतु कल्पना का योग होना अनिवार्य होता है। जिस अभिव्यक्ति में आंतरिक भावों का प्रकाशन और कल्पना का योग रहता हैवही कला है।[5] इसे मानस-प्रत्यक्षण कहा गया है। रचनात्मक रूपों का सृजन व्यक्ति के इन्हीं मानस प्रत्यक्षीकरण का परिणाम होता है। हालांकि कला सृजन हेतु कल्पना में संवेदनाओं व संवेगों का उचित मिश्रण होना आवश्यक है। बालक में उक्त सभी शक्तियां विद्यमान रहती हैइसी के फलस्वरुप वह चित्र सृजन करने में सक्षम रहता है। जब बालक कोई चित्र बनाता है तब पहले वह चित्र के भाव को अपनाता हैउसकी अनुभूति करता है और उसके साथ आत्म-साक्षात् करता है। इस तरह कल्पना का विस्तार होता है।[6]

बालक कला में अपनी रचनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति चित्रकला के माध्यम से विशेष रूप से करते हैं। बालक अपने सरल चित्रांकनों में अचेतन मन के निजी भावोंसंवेगोंकल्पनाओंइच्छाओंज्ञान आदि का प्रदर्शन करता है। वह अपने चित्रों की व्याख्या भी अपनी मनोस्थिति के अनुकूल ही करता है। 

बालक प्रारंभ में चित्रण करता है तो वह सहज-क्रीडा या वयस्कों का अनुकरण मात्र होती हैजो उनकी अनुकरणात्मक कल्पना का द्योतक है। जब वह किसी पदार्थ या विषयों की कल्पना करता है तो उसमें उत्कंठा उत्पन्न होती है कि वह पदार्थ उसके सामने उपस्थित हो। अतः अपनी इसी उत्कंठा को शांत करने के लिए वह चित्रों के माध्यम से उस पदार्थ को प्रकट करने का प्रयास करता है। बालकों में प्रकृति में निहित विभिन्न पदार्थों के मनमोहक रूपोंपशु-पक्षियोंफूलोंवस्त्रों आदि की तरफ विशेष आकर्षण रहता है। वह उन्हें पाने की चेष्टा करते हैं तथा अपनी कल्पना में उन्हें लाने का प्रयास करते हैं। जब बालक कभी आमोदवश चित्रकारी करता है तो इन्हीं विषयों की कल्पना की झलक उनके चित्रों में दिखाई देती है। 

बालकों में प्रशंसा प्राप्ति की प्रवृत्ति विद्यमान रहती हैवह हमेशा बड़ों द्वारा प्रशंसा सुनने को लालायित रहता है। जब वह चित्रकारी करता है तो उन्हें लगता है कि सुंदर चित्रों के निर्माण से माता-पिताशिक्षक आदि के द्वारा उसे प्रशंसा प्राप्त होगी। अतः अपने चित्रों को सौंदर्यात्मक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए रचनात्मक कल्पना करता है।  

बालक का मन अबोध होता है। उनके पास जो साधन उपलब्ध होते हैंवह उन्हीं के द्वारा चित्र निर्माण करने का प्रयास करता है। जब वह कुत्ते या घोड़े का चित्रण कर रहा होता है और उसके पास एकमात्र नीला रंग ही उपलब्ध हो, तो वह स्वयं तर्क नहीं करता कि अमुक जीव नीले रंग का नहीं होता। अपितु वह उसकी कल्पना उसी रंग-रूप में करता है तथा बिना सोचे-समझे चित्रण करने लगता है। 

संग्रह की प्रवृत्ति मानव के स्वभाव में चिरकाल से चली आ रही है। बालकों में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से रहती है। वह अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करते हैं। वह अपनी खुशी व आनंद के क्षणों को भी संग्रहित करने का प्रयास करते हैंअतः इसके लिए उनके पास चित्रण एक उपयुक्त माध्यम होता है। जब बालक कहीं घूमने जाते हैंकिसी शादी समारोह में शामिल होते हैं या बाहर टहलते हुए कोई मनमोहक वस्तुओं से आकर्षित होते हैं तो वह अपनी इस स्मृति को ताजा बनाए रखने हेतु उन्हें चित्रों के माध्यम से संजोने का प्रयास करते हैं। 

कभी-कभी बालक अपनी कल्पना में स्थित मानसिक संघर्ष को व्यक्त करने का भी प्रयास करते हैं। जब वह किसी व्यक्ति या पदार्थ से डरते हैं या उनके प्रति उनमें द्वेष का भाव होता है तो बालक उनकी कल्पना नकारात्मक रूपों में करेगा तथा अपनी इसी कल्पना को वह चित्रों के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है। वह ऐसे चित्रों में नकारात्मक रूपों व रंगों का प्रयोग करते हैंजैसे कोई बालक कुत्ते से डरता है तो कुत्ते को विकृत रूप में, लंबे-लंबे दांतों वाला व काले रंग में चित्रित करेगा। 

धीरे-धीरे अवस्था परिवर्तन के साथ-साथ बालक अपने चित्रण में अविष्कारात्मक या व्यवहारात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति करने लगते हैं। 

खेल में रचनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति

खेल की प्रवृत्ति बालक में अधिक रहती है। वह अपना अधिकतर समय विभिन्न प्रकार की क्रीड़ा करने में ही व्यतीत करता है। बालक खेलों का चुनाव अपनी कल्पना शक्ति के अनुरूप ही करता है। रचनात्मक कल्पना का प्रयोग बालक मिट्टी से घरोंदे बनानेखिलौनों का निर्माण करनेतथा उनसे विभिन्न क्रियाएं करवानेघर को सजानेटूटे-फूटे सामान से रचनात्मक वस्तुओं का निर्माण करने जैसे माचिस की डिब्बी से रेलगाड़ीघरपलंग आदि का सृजन करने आदि में करता है। खेल कल्पनामयी शारीरिक क्रिया का नाम है। जिन खेलों में कल्पना के लिए स्थान नहीं रहता वे वस्तुत: खेल नहीं है।[7]

कहानियों में रचनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति

बालक अपनी कल्पना व रुचि के अनुरूप कहानी सृजन करते हैं। उनकी कहानियां कौतुहलपूर्ण, तार्किकरहस्यात्मकदीर्घावधि व कठिन विषयों पर आधारित होती है तथा उसमें गंभीरता का अभाव रहता है। बालकों की कहानियां संक्षिप्त व सीधी-सरल भाषा में रचित होती है, क्योंकि उनमें तर्क व बौद्धिक क्षमता का अभाव होता है। बालक की कल्पना सरल व स्पष्ट होती है। कभी-कभी वह अलग-अलग कहानियों एवं उनके पात्रों की एक साथ कल्पना कर नवीन कहानी की रचना का प्रयास करता है। बालक जैसी कहानी सुनता व पढ़ता है, उन्हीं के अनुरूप नवीन कहानियों का सृजन करता है। उनकी कल्पना में प्रलौकिक अर्थात वास्तविकता से परे के पात्रों की अधिकता रहती है। अतः उनकी कहानियों में भूत, पिशाच, राक्षस, देवता, राजा तथा जंगल कथाओं के पात्रों की अधिकता रहती है।  

वह अपनी इच्छात्मक कल्पनाओं को भी कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है। बालक वास्तविक घटनाओं की अपेक्षा रहस्यमयी व रोमांचकारी कल्पनाओं या कहानियों का निर्माण अधिक करते हैं। कहानी के माध्यम से वे एक बाल-जगत की कल्पना करते हैं तथा उन पात्रों को पीड़ित होने की कल्पना कर संतृप्त होते हैंजिससे बालकों को भय रहता है या जिससे मुकाबला करने में असमर्थ होते हैं। 

अभिनय में रचनात्मक कल्पना की अभिव्यक्ति

बालक में अनुकरण की प्रवृत्ति जन्मजात होती है। वह अपने माता-पिता, शिक्षक आदि के अनुकरण द्वारा अभिनय करने का प्रयास करता है। वास्तव में अभिनय बालक हेतु एक प्रकार की क्रीड़ा का ही अभिन्न अंग होता है। बालक अपने प्रिय पात्रों के अनुकरण का प्रयास करता है तथा अभिनय के माध्यम से स्वयं का उस पात्र से संबंध स्थापित कर आनंद प्राप्ति की चेष्टा करता है। विभिन्न प्रकार के खेलों में वह शेरघोड़ाराजानायक आदि का अभिनय करता है। वह अपने प्रिय नायक का अभिनय करते समय स्वयं की उसी के अनुरूप बलशाली होने की कल्पना करता है।

निष्कर्ष

अपनी बाल्यावस्था में बालक विभिन्न प्रकार की कल्पना करता है तथा उसी के अनुरूप गतिविधियां करता है। कल्पनाशीलता बालक का एक महत्वपूर्ण गुण है। बालकों को कल्पना शक्ति सृजनात्मक कार्य करने हेतु प्रेरित करती है तथा विभिन्न प्रकार की समस्याओं को रचनात्मक ढंग से हल करने में सहायता प्रदान करती है। बालक की कल्पना शक्ति का विकास होना अत्यंत आवश्यक हैयदि उसमें काल्पनिक गुणों का उचित प्रकार से विकास नहीं होता तो उसमें रचनात्मक क्षमता का अभाव रहता है। बालकों की विशिष्ट कल्पना शक्ति का ही परिणाम है कि बालक रचनात्मक चित्रण करने में सक्षम रहता है जिसकी समानता हम आधुनिक कला से करते हैं। अतः माता-पिताअभिभावकों और शिक्षकों को बालक में कल्पनाशीलता के विकास में मदद करनी चाहिए तथा उन्हें खेल, कहानी, चित्रण आदि रचनात्मक गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
  1. अशोक : कला सौंदर्य एवं समीक्षा शास्त्र, संजय पब्लिकेशन शैक्षिक पुस्तक प्रकाशक, अस्पताल मार्ग, आगरा-तीन, चतुर्थ संस्करण, 2006, पृष्ठ संख्या-70
  2. शिवकरण सिंह : कला सृजन प्रक्रिया (प्रथम भाग – सिद्धांत पक्ष), बासुमति जीरो रोड, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 1969, पृष्ठ संख्या-13-14
  3. ममता चतुर्वेदी : सौंदर्य शास्त्र, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, पृष्ठ संख्या-133 
  4. लालजीराम शुक्ल : बाल-मनोविकास, नन्दकिशोर एण्ड ब्रदर्स, बनारस, प्रथम संस्करण, 1941, पृष्ठ संख्या-265
  5. राजेश कुमार व्यास : भारतीय कला, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, द्वितीय संस्करण, 2020, पृष्ठ संख्या-3
  6. लालजी राम शुक्ल : बाल-मनोविज्ञान, टाइम टेबुल प्रेस, बनारस, द्वितीय संस्करण 2003, पृष्ठ संख्या-197
  7. लालजी राम शुक्ल : बाल-मनोविज्ञान, टाइम टेबुल प्रेस, बनारस, द्वितीय संस्करण 2003, पृष्ठ संख्या-195