हंसराज हंस, टोंक, राजस्थान |
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जीवन में व्यक्ति का कई तरह से सीखना होता है। व्यक्ति की जो भी सीखने में मदद करते है वह सभी गुरु कहलाते है। गुरु का अर्थ भी यही होता है कि जो उचित व अच्छी शिक्षा दें, जीवन में मार्गदर्शक बने।
इसी अर्थ में सबसे पहला गुरु माता-पिता को बताया गया है। बच्चा जब विद्यालय में विद्यार्जन के लिए जाता है तो वहां शिक्षक उसका गुरु होता है। व्यक्ति का भावी जीवन में आध्यात्मिक गुरु भी होता है।
हमें बहुत सारी जानकारियां पुस्तकों के पढ़ने से भी मिलती है। वह भी हमें बहुत कुछ सीखाती है।इस लिहाज से पुस्तकें भी गुरु ही है। *हमारी सनातन संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर बताया गया है*
एक गुरु का अपने शिक्षार्थी को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना ही उसका मूल कार्य होता है। इसके लिए मैं गुरु की शिक्षा से ज्यादा उसके आचरण को मानता हूं। क्योंकि वर्तमान समय में
आपको ज्ञान बांटने, शिक्षा देने वाले, अच्छी-अच्छी बातें बताने वाले हजारों की संख्या में मिल जाएंगे। पर उनके आचरण वैसे नही होते है, जैसा वह कहते है।
*इसलिए मैं आचरण पर आधारित शिक्षा देना ही गुरु का सबसे बड़ा दायित्व मानता हूं*।
एक कहानी से मैं मेरी बात को और अधिक स्पष्ट करने की कोशिश करता हूं।
एक बार एक मां अपने बेटे को एक महात्मा जी के पास इस आशा के साथ ले जाती है कि वह मेरे बेटे की बुरी लत को छुड़ा देंगे। महात्मा जी के पास जाकर वह कहती है कि महात्मा जी मेरा बेटा गुड़ बहुत खाता है, आप इसको समझा-बुझाकर गुड़ खाने की आदत से छुटकारा दिलाए। महात्मा जी थोड़ी देर सोचकर कहते है अभी तो आप यहां से जाओ।सात दिन बाद फिर आना।वह औरत अपने बच्चे को लेकर वापस चली जाती है।सात दिन बाद पुनः महात्मा जी के पास आती है, तो महात्मा जी कहते है अभी नहीं बताऊंगा। अगले सप्ताह तुमको फिर आना होगा। औरत बड़ी निराश होती है पर उसके पास और कोई विकल्प भी नही था। वह दु:खी मन से वापस अपने घर को जाती है।अगले सप्ताह फिर वह बच्चे को लेकर महात्मा जी के पास आती है। अब की बार महात्मा जी ने उनको पास में बुलाकर बैठाया और लड़के से सारी बात पुछी। गुड़ कब से खा रहे हो?कितना रोज खाते हो आदि। फिर लड़के को समझाते है कहा देखो भाई एक ही चीज ज्यादा नही खानी चाहिए। एक ही चीज ज्यादा खाने से हमारा शरीर बीमार हो जाता है। तुमको सभी चीजें खानी चाहिए। जैसे दुध, दही, घी, साग- सब्जी, रोटी,फल इत्यादि। यदि तुम ऐसा नही करोगे तो तुम जल्दी ही बीमार हो जाओगे। लड़के ने महात्मा जी की हां में हां मिलाई और कहा ठीक है महात्मा जी। अब मैं गुड़ कम खाऊंगा और बाकी की चीजें भी खाया करूंगा। यह सब उसकी मां भी देख रही थी। उसने तपाक से कहा! महात्मा जी आपको इतनी सी बात ही कहनी थी तो आप हमें शुरू के दिन ही कह देते। हमें पन्द्रह दिन तक क्यों चक्कर कटवाए।
इतना सुनते ही महात्मा जी ने बड़ा सुंदर जवाब दिया।
माता में स्वयं भी पहले गुड़ बहुत ज्यादा खाता था, तो मैं कैसे बच्चे को कम खाने या छोड़ने के लिए कहता।
इन पन्द्रह दिनों में मैंने भी गुड़ खाना छोड़ा है। जब मैं छोड़ सकता हूं तो अब मैं दुसरों को भी कह सकता हूं।
मुझे विश्वास भी हो गया है कि इस लत को छोड़ा जा सकता है। इस कहानी को कहने का यह अर्थ निकलता है कि गुरुजी को अपने शिष्यों में जो गुण, नैतिक मूल्य विकसित करना है, पहले वह स्वयं अपने में विकसित करें।
दुसरों को कहना आसान है पर उसको करने में आने वाली चूनौतियों का पता तो तब ही चलता है जब हम स्वयं उस काम को करके पहले देखे।ऐसा मेरा मानना है।
जो शिक्षक समय से स्कूल जाता है, समय पर अपना पाठ्यक्रम पूरा करता है,
रोज समय पर कक्षा में पढ़ाता है, तो उसकी समयबद्धता को देखकर ही बच्चे समय का महत्व समझ जाते है।
उसको अलग से समय के महत्व पर भाषण देने की जरूरत मैं तो कतई नही मानता हूं। वर्तमान समय में अपने आचरण से शिक्षा देने का अभाव दिख रहा है। एक कहावत भी है *भट्ट जी भट्टा खावे,ओरा न पच करावें*। अर्थात खुद बैंगन खाते है, और दूसरे को बैंगन खाने के लिए मना करते है।
इस तरह के नैतिक शिक्षा के कोई मायने हमे तो दिखाई नही देते है।आप देखो सभी विद्यालयों में अच्छे- अच्छे कोटेशन दीवारों पर लिखे रहते है पर क्या उनसे बच्चों में नैतिक मूल्यों का विकास हुआ? ऐसा कभी नही होता है। *इसलिए गुरु का दायित्व है बच्चों में अपनी बात कहने का हौसला,आत्मविश्वास पैदा करें, उनकी सोच को वैज्ञानिक बनाएं।
शिक्षक स्वयं के आचरण से बच्चों में दया, परोपकार, संयम, संवेदनशीलता, सहयोग जैसे गुणों का विकास करें। उनमें सेवा भाव, आदर-सम्मान, दूसरों की परवाह करना, सभी से प्रेम- करना, मां- बाप की सेवा करना आदि जीवनमूल्यों के संस्कार उनमें आचरण से ही पैदा हो सकते है।
वर्तमान समय मे हमारे देश में पढ़ें लिखे की संख्या तो खूब हो रही है पर उनमें संस्कार वान बहुत कम है। मतलब शिक्षित तो है पर दीक्षित बहुत कम है। *इसलिए गुरु का महत्वपूर्ण दायित्व मेरी नजर में यही है कि वह अपने आचरण से नैतिक मूल्यों व सद्गुणों का विकास बच्चों में करने को ही पहली प्राथमिकता दे* यही वर्तमान सभी की परम आवश्यकता मुझे लग रही है। इसी से समाज में पुनः शिक्षक का सम्मान बढ़ेगा।
वर्तमान समय के गुरुजी ने अपने कार्य को पुस्तकें पढ़ाने तक ही सीमित कर लिया है। जब तक विद्यालयों में, परिवारों में आचरण आधारित संस्कारों पर काम नही होगा तब तक शिक्षक का दायित्व पुरा नही होगा।
हम इसके लिए समाज को ही पुरा दोष नही दे सकते है।
हम सब को मिलकर इस पर चिंतन, मनन करना पड़ेगा। शिक्षक को स्वयं पहल करके अपने आचरण से शिक्षार्थियों को शिक्षा देनी पड़ेगी तब ही गुरुजी को गुरुत्व का मान-सम्मान प्राप्त हो सकेगा।
हंसराज हंस
टोंक राजस्थान। |
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