लोक अदालत: शीघ्र एवं सस्ता न्याय दिलाने की सक्षम विधिक सेवा
      31 October 2022

( स्वैच्छिक दुनिया ) ब्यूरो
न्यायालयों की जटिलतम प्रक्रिया से सामान्य या गरीब व्यक्ति के लिए न्याय प्राप्त कर पाना दुरूह कार्य जैसा है| जन सामान्य के बीच एक उक्ति प्रचलित है कि मुकदमाबाजी व्यक्ति को कंगाल बना देती है या किसी को यदि बर्बाद करना हो तो उसे दो-चार मुकदमों में फंसा दो, वह अपने आप बर्बाद हो जायेगा| न्याय के नाम पर तारीख पर तारीख और हर तारीख पर पानी की तरह बहता पैसा, न्यायिक प्रक्रिया का कटु सत्य बन चुका है| इस सत्य का आभास जिम्मेदारों को बहुत पहले हो चुका था| शायद तभी सन 1987 में विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनयम साकार रूप ले सका| जिसने विवादों के निपटारे की वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में लोक अदालतों के गठन का मार्ग प्रशस्त किया| इस अधिनियम की पृष्ठभूमि वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 39क को जोड़कर बनी थी| जिसके द्वारा शासन से अपेक्षा की गई है कि वह यह सुनिश्चित करे कि भारत का कोई भी नागरिक आर्थिक या अन्य किसी अक्षमताओं के कारण न्याय पाने से वंचित न रह जाये| इस हेतु सर्वप्रथम सन 1980 में केन्द्र सरकार के निर्देश पर पूरे देश में कानूनी सहायता बोर्ड की स्थापना हुई थी| बाद में इसे कानूनी रूप देते हुए केन्द्र सरकार द्वारा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 के नाम से पारित किया गया| जो कि 9 नवम्बर 1995 को लागू हुआ| इस अधिनियम द्वारा ही विधिक सहायता एवं लोक अदालत संगठित करने का अधिकार राज्य स्तर पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को मिला है|

वर्ष 2002 में उपरोक्त अधिनियम में संशोधन करके एक नवीन अध्याय जोड़ते हुए जन उपयोगी सेवा को परिभाषित किया गया| जिसमें कि वायु, सड़क या जल मार्ग द्वारा यात्रियों या माल के वहन हेतु यातायात सेवा, डाक, तार या टेलीफोन सेवा, किसी संस्थान द्वारा जनता को विद्युत्, प्रकाश या जल का प्रदाय, सार्वजनिक मल वहन या स्वच्छता प्रणाली, अस्पताल या औषधालय तथा बीमा सेवा को शामिल किया गया था| 16 फरवरी 2016 को केन्द्र सरकार द्वारा एक अधिसूचना जारी करके इसमें रियल इस्टेट तथा शैक्षणिक सेवा को भी सम्मिलित कर दिया गया है|

उपरोक्त लोक उपयोगी सेवाओं से सम्बन्धित मामलों के लिए विधिक सेवा प्राधिकरण (संशोधन) अधिनियम 2002 की धारा 22बी के तहत स्थाई लोक अदालतों की स्थापना शुरू हुई| यहाँ लोक अदालत एवं स्थाई लोक अदालत के बीच अन्तर समझना आवश्यक है| प्रथम दृष्टया दोनों ही तरह की लोक अदालतों का मुख्य उद्देश्य विवादों को आपसी सहमति से निपटाना होता है| अधिनियम की धारा 21 के तहत दोनों ही लोक अदालतों का अधिनिर्णय यथास्थित सिविल न्यायालय की डिक्री या आदेश समझा जाएगा| जो कि अन्तिम तथा विवाद के सभी पक्षकारों के लिए आबद्धकर होगा| इस आदेश के विरुद्ध किसी भी तरह की अपील किसी भी न्यायालय में नहीं की जा सकती है| अधिनियम की धारा 22 के तहत लोक अदालत या स्थाई लोक अदालत को कोई अवधारण करने के प्रयोजन के लिए वही शक्तियां प्राप्त हैं जो सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अधीन सिविल न्यायालय को प्राप्त होती हैं| इस अनुसार लोक अदालतें किसी साक्षी को समन कर सकती हैं, शपथ पत्रों पर साक्ष्य ग्रहण कर सकती हैं तथा आवश्यक दस्तावेज या लोक अभिलेख आदि मांग सकती हैं| अपने समक्ष आने वाले विवाद के अवधारण हेतु अपनी स्वयं की प्रक्रिया विनिर्दिष्ट कर सकती हैं| विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 22(3) में स्पष्ट रूप से अंकित है कि लोक अदालत या स्थाई लोक अदालत के समक्ष सभी कार्यवाहियां भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 193, धारा 219 और धारा 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाहियां समझी जाएंगी तथा प्रत्येक दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 का 2) की धारा 195 और अध्याय 26 के प्रयोजन के लिए सिविल न्यायालय समझी जाएंगी| लोक अदालतों का आयोजन कभी-कभी होता है| जहां सिविल कोर्ट में लम्बित उन मामलों की सुनवाई होती है जिनमें आपसी समझौते के द्वारा विवादों को निपटाने की गुंजाइश दिखाई देती है| लोक अदालतों का आयोजन प्रत्येक राज्य प्राधिकरण या जिला प्राधिकरण या उच्चतम न्यायालय विधिक सेवा समिति या प्रत्येक उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति या तालुक विधिक सेवा समिति द्वारा किया जाता है| अधिनियम की धारा 19(5) के अनुसार किसी भी लोक अदालत को उस न्यायालय के, जिसके लिए लोक अदालत आयोजित की जाती है, समक्ष लम्बित किसी मामले की बाबत या किसी ऐसे विषय की बाबत जो उसकी अधिकारिता के भीतर है किन्तु वह उसके समक्ष नही लाया गया है| तालुक विधिक सेवा समिति द्वारा आयोजित लोक अदालत में तालुक अदालतों में लम्बित मुकदमों की सुनवाई होती है| इसी प्रकार जिला प्राधिकरण द्वारा आयोजित लोक अदालत में जनपद सिविल न्यायालय के, उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति द्वारा आयोजित लोक अदालत में उच्च न्यायालय के तथा उच्चतम न्यायालय विधिक सेवा समिति द्वारा आयोजित लोक अदालत में उच्चतम न्यायालय में लम्बित ऐसे मुकदमों को सभी पक्षकारों की सहमति से भेजा जाता है, जिनका निपटारा पक्षकारों के आपसी सुलह समझौते द्वारा सम्भव दिखाई देता है| यदि लोक अदालत में मुकदमें का निपटारा सम्भव नही हो पाता तो उसे पुनः सम्बन्धित अदालत में वापस भेज दिया जाता है| लोक अदालतों में कोई नया मुकदमा दाखिल नहीं होता है|

स्थाई लोक अदालत में ऊपर वर्णित जन उपयोगी सेवाओं से सम्बन्धित किसी विवाद का कोई पक्षकार विवाद को किसी न्यायालय के समक्ष लाने से पूर्व विवाद के निपटारे हेतु आवेदन कर सकता है, उन अपराधों को छोड़कर जो विधि के अधीन शमनीय नहीं हैं| साथ ही ऐसे मामले भी स्थाई लोक अदालत की परिधि से बाहर होते हैं जिसमें वादग्रस्त सम्पत्ति का मूल्य दस लाख रूपए से अधिक होता है| स्थाई लोक अदालतें एक नियत स्थान पर सार्वजनिक अवकाश को छोड़कर प्रतिदिन काम करती हैं| लोक अदालत की तरह यहाँ न तो किसी प्रकार की कोई कोर्ट फ़ीस पड़ती है और न ही वकील की आवश्यकता होती है| परन्तु यदि पक्षकार चाहें तो अपना पक्ष रखने के लिए वकील नियुक्त कर सकते हैं| सबसे पहले सुलह समझौते के माध्यम से विवाद को निपटाने का प्रयास किया जाता है| परन्तु बातचीत की प्रक्रिया फेल होते ही इस न्यायालय को दीवानी कोर्ट के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं और वह मुकदमें के गुण दोष के आधार पर अपना निर्णय सुना सकता है| जिसे मानने के लिए दोनों पक्ष वाध्य होते हैं| विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 22ई के अधीन स्थाई लोक अदालत द्वारा गुणावगुण के आधार पर या समझौता करार के निबंधनानुसार दिया गया प्रत्येक अधिनिर्णय अन्तिम और उसके सभी पक्षकारों एवं उनके अधीन दावा करने वाले व्यक्तियों पर वाध्य होता है तथा सिविल न्यायालय की डिक्री माना जाता है| स्थाई लोक अदालत अपने द्वारा दिए गये प्रत्येक अधिनिर्णय को स्थानीय अधिकारिता रखने वाले सिविल न्यायालय को भेज देती है, जहाँ से उक्त अधिनिर्णय का निष्पादन होता है| इस निर्णय के विरुद्ध किसी अन्य न्यायालय में अपील नहीं हो सकती, केवल उच्च न्यायालय में रिट हो सकती है| स्थाई लोक अदालत को एक करोड़ रुपये तक जुर्माना लगाने का अधिकार प्राप्त है| यदि कोई वाद दीवानी न्यायलय में चल रहा है तो उस मामले को स्थाई लोक अदालत में नहीं लाया जा सकता है|

इस प्रकार लोक अदालत एवं स्थाई लोक अदालत कम से कम औपचारिकताओं में शीघ्र तथा सस्ता न्याय दिलाने की एक सक्षम विधिक सेवा है| जिसका लाभ देश के आम जन मानस को मिल रहा है| परन्तु पर्याप्त प्रचार-प्रसार के अभाव में विशेष तौर पर स्थाई लोक अदालत के बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं| अतः सरकार तथा विधिक सेवा प्राधिकरण को इस दिशा में विशेष प्रयास करना चाहिए| इस हेतु सभी आठों जन उपयोगी सेवाओं से सम्बन्धित विभागों/सेवा प्रदाताओं को निर्दिष्ट किया जाना चाहिए कि वह अपने कार्यालयों में, जहाँ आमजन का सर्वाधिक आना-जाना रहता हो, दीवार पर स्थाई एवं स्पष्ट रूप से यह अंकित करायें कि ‘यदि आप हमारी सेवा से सन्तुष्ट नहीं हैं तो स्थाई लोक अदालत में निःशुल्क शिकायत कर सकते हैं|’ इस सूचना के साथ स्थाई लोक अदालत का पूरा पता या सम्पर्क सूत्र भी स्पष्ट रूप से अंकित होना चाहिए| इसके दो लाभ होंगे| पहला यह कि आम जन मानस को स्थाई लोक अदालत के बारे में पता चलेगा और दूसरा यह कि सेवा प्रदाता अपने ग्राहक को हर हाल में सन्तुष्ट रखने का प्रयास करेगा| एक तरह से उनके अन्दर कानून का भय व्याप्त होगा, जो आज की महती आवश्यकता भी है|
डॉ.दीपकुमार शुक्ल
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