क्यों चरमराई विद्यालयीन व्यवस्था
      29 November 2022

अरुणिमा मिश्रा सचिव आश्रयनिष्ठा वेलफेयर सोसायटी
स्वैच्छिक दुनिया ब्यूरो, कानपुर। अरुणिमा मिश्रा, सचिव, आश्रयनिष्ठा वेलफेयर सोसायटी
विद्यालय व्यवस्था के असफल होने का एक आधारभूत कारण ये हैं कि वर्तमान में विद्यालय एक ऐसी संस्था बन गए हैं जहाँ बालकों के जीवन का ही संस्थानीकरण हो रहा हैं l इसका अर्थ हैं कि सभी नागरिक बनाने के लिए उन्हें नियम सिखाए नहीं जाते बल्कि उन्हें नियमों में बाँध दिया जाता हैं l

इसके साथ हो बालकों को ये बताया और सिखाया जाता हैं कि अच्छे और सभी बनने के लिए नियमों का पालन करना ही होगा l जो नियमों का पालन नहीं करेंगे वह अच्छे बालक और इंसान नहीं होंगे l नियमों का ये बंधन बालकों के व्यवहारिक जीवन में वैचारिक कट्टरता के रूप में साफ़ दिखाई देता हैं l यथा – आज के समय में बालक व्यक्तिगत व सामाजिक संबंधों को विशुद्ध तर्क के आधार पर देखते हैं वहाँ भावनाओं के लचीलेपन का कोई स्थान नहीं हैं l इसका परिणाम टूटते परिवार और बिखरते समाज के रूप दिखता हैं l जो वर्तमान समाज की एक विकट समस्या हैं l इसे और गहनता से समझने के लिए हमें ये समझना होगा कि वास्तव में विद्यालय नामक संस्था का समाज में अस्तित्व क्यों और कैसे हुआ ? एक नज़र देखते हैं l
मानव सभ्यता के आरंभ में व्यक्ति स्वतंत्र था और स्वछन्द रूप से जीवन व्यतीत करता था l यहाँ स्वछन्द शब्द इसलिए कहा गया कि वास्तव में मानव अपनी मर्जी से जीता था l उसके व्यक्तिगत या सामाजिक व्यवहार से संबंधित न नियम थे और न कोई व्यवस्था l ऐसी अवस्था में उसके जीवन में बहुत अव्यवस्था फ़ैल गई जिससे जीवन अराजकता का प्रसार हुआ l अव्यवस्था और अराजकता के माहौल में व्यक्तियों का जीवन बहुत असुरक्षित हो गया l ये असुरक्षा निजी स्तर पर भी थी और सामाजिक स्तर भी l
एक सुरक्षित और स्वस्थ जीवन के लिए यह आवश्यक था कि सभी अपने और एक दूसरे के हित में कुछ बातें या नियम सुनिश्चित कर ले l कुछ मेधावी वरिष्ठ लोगों ने सर्व सम्मति से ऐसे नियमों का निर्माण किया l अब प्रश्न उठा कि आने वाली पीढ़ियों को ये नियम शुरू से ही कैसे सिखाएँ जाए जिससे कि सब लोगों का लाभ हो ?
इस समस्या का समाधान आया विद्यालय रुपी संस्था के रूप में l आरंभ में इस संस्था का आधारभूत कार्य था – बच्चों को समाज में रहने के आवश्यक कायदे कानून व व्यवहार सिखाना जिससे कि बालक समाज के बेहतर नागरिक बन सके l उस समय-देश-काल की परिस्थितियों में यह एक प्रभावी व अनोखी व्यवस्था के रूप में सामने आया l विद्यालय नामक इस संस्था ने समाज में एक प्रभावी व्यवस्था बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की l अगर ये कहा जाए कि विद्यालय (जो समय में गुरुकुल आदि नामों से जाने जाते थे) समाज में व्यवस्था का निर्माण करने व उसे बनाए रखने का आधार स्तंभ थे तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी l चाहे एक संगठित परिवार के निर्माण की बात हो या समाज में व्यवहारिक लेन-देन, हर छोटी से छोटी बात के लिए नियम बनते गए और व्यक्ति के जीवन को व्यवस्थित स्वरूप दिया जाने लगा l मानव सभ्यता के उस दौर में यह व्यक्ति और समाज दोनों की महत्वपूर्ण आवश्यकता थी l समय के साथ विद्यालय व्यवस्था कठोर होती गई l यहाँ तक कि एक ऐसा समय भी आया जब सामाजिक व्यवस्था के ही नाम पर समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए विद्यालय के द्वार बंद कर दिए गए l विद्यालय वर्ग और समुदाय विशेष के लोगों के लिए सीमित हो गया l फिर क्रांति का एक दौर चला और पुन: व्यवस्था की दुहाई देकर विद्यालयों में आरक्षण का भी दौर आया l मतलब व्यवस्था में एक और व्यवस्था l समय के साथ हर बार समाज के लोगों ने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए विद्यालय के भीतर अनेक व्यवस्थाओं का निर्माण किया l धीरे-धीरे विद्यालय एक व्यवस्थाओं का घेरा बन गया जहाँ आज नियम और व्यवस्था न केवल विद्यालय वरन स्वसमाज की घुटन का आधार बन गई हैं l
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