शिष्य का धर्म
      27 October 2022

हंसराज हंस, टोंक, राजस्थान
‌आदिकाल से ही हमारे देश में गुरु-शिष्य के आदरपूर्ण संबंधों की परंपरा रही है।
प्राचीन समय में गुरु के आश्रम में रहकर सभी शिष्य जीवन मूल्यों की शिक्षा ग्रहण करते थे। गुरु शिष्यों के लिए पथ प्रदर्शक के रूप में रहते थे।
*शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करना अपना परम धर्म मानते थे* ।
अरुणी की कथा तो सबको पता ही है। गुरुजी के कहने पर कैसे वह रात भर ठंड के दिनों में भी पानी के बहाव को रोकने के लिए दीवार बनकर सारी रात पानी में लेटा रहा था। सुबह जब गुरुजी को पता लगा तो वहां जाकर देखते है । आरुणी तो सारी रात पानी में रहने से उसका सारा शरीर ठंडा हो गया, वह बेहोश पड़ा है। गुरुजी की आज्ञा के पालन के लिए उसने अपने प्राणों की भी परवाह नही की।
इसकी तरह हर एक शिष्य का परम कर्तव्य होता है कि गुरुजी से शिक्षा और दीक्षा प्राप्त ही नही करे बल्कि हर परिस्थिति में उनकी आज्ञा का पालन करना भी सीखें। *धीरे-धीरे समय बदलता गया। आधुनिक समय में न तो आश्रम व्यवस्था रही और ना ही वैसे गुरुजी व शिष्य के संबंध रहे*।
वर्तमान में मैकाले की शिक्षा पद्धति हमारे देश के विद्यालय में चलाई जा रही है।उसका बस एक ही उद्देश्य था। सरकारी नौकरी के लिए बाबु/कर्मचारी तैयार करना।
इसलिए अब गुरुजी का दर्जा भी एक सरकारी कर्मचारी के रूप में ही माना जाने लगा है। अब वे गुरु नही रहे वेतनभोगी शिक्षक हो गए है। उनको वेतन देकर शिक्षा के अलावा अन्य कई तरह के गैर शैक्षणिक कार्य भी सरकार द्वारा करवाए जा रहे है। साथ ही वर्तमान समय के शिष्यों में भी गुरुजी से उच्च शिक्षा प्राप्ति में अरुचि पैदा हुई है। बच्चे किताबी कीड़ा ही बनते जा रहे है। पढ़ाई में रटंत विद्या का ज्यादा बोलबाला हो गया है। बच्चे खूब रटकर अच्छे अंक तो ला रहे है, पर उनमें जीवन मूल्यों की कतई समझ नही है। *वे शिक्षित तो हो रहे है पर दीक्षित नही हो पाए है*‌। इसलिए हर रोज हमारे देश में अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है। साथ आपको ताज्जुब होगा यह जानकर कि इन तमाम तरह के अपराधों में पढ़े-लिखे, उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति‌ ही लिप्त पाए जाते है। मैं इसके पीछे यही मानता हूं कि बच्चों में नैतिक मूल्यों का अभाव हो गया है। सरकारी नौकरी प्राप्त करना ही उन्होंने शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य समझा है। उनके दैनिक व्यवहार में माता- पिता, गुरुजी के प्रति संबंधों में बहुत परिवर्तन आ गया है। अब वे गुरुजी को मान सम्मान की दृष्टि से नही देखते है। उनकी आज्ञा का पालन करना तो बड़ी टेढ़ी खीर हो गई है।
उच्च शिक्षा प्राप्त बच्चों में भी नैतिकता का पतन हुआ है। बच्चों में दुसरो का सहयोग, आदर- सम्मान, प्रेम करने जैसे गुणों का नितांत अभाव हो गया है। *जबकि एक शिष्य का सबसे बड़ा धर्म यही होता है कि वह दीन दु:खियों की सेवा करें, अपनी शिक्षा के द्वारा राष्ट्र के विकास में योगदान करें, अपने से बड़ों का आदर करें, गुरुजी के आदेशों का अक्षरश पालन करें, माता- पिता की सेवा करें*।
शिक्षा से जीवन में आने वाली चूनौतियो का मुकाबला करने के लिए अपने आप में आत्मविश्वास, आत्मबल पैदा करके, अपना हौसला व ताकत बढ़ाकर भावी जीवन में अच्छी सफलता प्राप्त करें। हमारे शास्त्रों में गुरु का स्थान भगवान से भी बड़ा बताया गया है। इस बात को सच्चे शिष्य‌ जीवन में कभी नही भूलते है।इसको ही वह अपना सबसे बड़ा धर्म मानते है।
गुरुजी हमें जीवन जीने की कला सिखातें है। *गुरु ही वह दीपक होता है जो स्वयं जलकर दूसरों को रोशनी देता है*। सबका अज्ञान दूर करता है। वर्तमान समय में गुरुजी का सम्मान करने की आदत का शिष्यों को अपने में विकसित करने कि मुझे महती आवश्यकता लग रही है।आधुनिकता के चक्कर हम इसी तरह उलझे रहे और लगातार हमारे सांस्कृतिक मूल्यों को भूलते गये तो निश्चित रूप से एक दिन हम पुनः विदेशी शासकों के शारीरिक रूप से नही तो मानसिक रूप से तो गुलाम हो‌
ही जाएंगे। इसलिए नई शिक्षा नीति 2020 में भी इस बात की चिंता की गई है।
नई शिक्षा नीति में ऐसे व्यक्ति तैयार करने की बात कही गई है जो देश सेवा के लिए हमेशा तैयार रहे, जिनमें सामाजिक गुणों का विकास हो, जो छुआछूत, जातिवाद, अमीरी- गरीबी आदि कुरितियों से
दूर रहे। देश के सभी नागरिकों से प्रेम करें। क्योंकि एक पढ़ें- लिखे व्यक्ति का सबसे बड़ा धर्म यही होता है कि वह दीन दु:खियों की सेवा करें, शिक्षा के द्वारा प्राप्त ज्ञान का राष्ट्र के विकास में योगदान करें, अपने से बड़ों का आदर करें, गुरुजी के आदेशों का अक्षरश पालन करें, माता पिता की सेवा करें।देश के सभी नागरिकों का मान सम्मान करें।
वर्तमान समय की मुझे यही परम आवश्यकता लग रही है‌
और इसको ही‌ मैं शिष्य का परम धर्म व कर्तव्य मानता हूं।
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