विकलांग व्यक्तियों का सामाजिक समावेशन
      17 November 2022

अर्पित बाजपेई संवाददाता
स्वैच्छिक दुनिया ब्यूरो। दिल्ली। विकलांग और सामान्य व्यक्ति एक ही समाज में रहते हैं। परिवार, शिक्षा संस्थान एवं कार्य स्थल आदि का समन्वित रूप समाज है। समाज में सामान्य, विकलांग, धनी, निर्धन आदि सभी व्यक्ति एक साथ रहते है। सभी वर्ग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति एवं विकास हेतु एक दूसरे पर निर्भर रहते है। किसी भी व्यक्ति का जीवन एकल रूप से बिना किसी के सहयोग के नही चल सकता, मनुष्य एक समाजिक प्राणी हैं (इस्माइल दुर्खीम, 1976) । समाज में सभी व्यक्ति (आयु, लिंग, धर्म व स्तर) अपनी क्षमता व आवश्यकताओं के अनुसार अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है तथा अपने दायित्वों के निर्वाह के साथ ही एक व्यक्ति अन्य व्यक्ति व समाज के अधिकारों की प्राप्ति को सुनिश्चित करता है (कौशिक प्रीती, 2003)।
दिव्यांग व्यक्तियों के भी समाज में अपने अधिकार और कर्तव्य है l दिव्यांग व्यक्तियों की समाज में सक्रिय भूमिकाओं के विस्तार और विकास के लिये 3 दिसम्बर को प्रतिवर्ष अन्तर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस के रूप मनाया जाता है। विश्व स्तर पर इस दिवस को मनाने के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
विश्व स्तर पर जनसमुदाय को दिव्यांग व्यक्तियों की विभिन्न 1. आवश्यकताओं जैसे- शारीरिक, मानसिक व सामाजिक आदि के विषय में जागरूक बनाना ।
2. दिव्यांग व्यक्तियों को उनके दायित्वों व अधिकारों के विषय में जागरूक करना
3. इसका मुख्य उद्देश्य दिव्यांग लोगों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना है। (तमन्ना एम०शाह, 2018)
समय-समय पर दिव्यांग व्यक्तियों की सामाजिक सक्रियताओं व सहभागिताओं को बढ़ाने के लिये प्रयास किये जाते रहे हैं जिससे कि वह सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र - शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यवसाय विवाह आदि में उन्हें समान अवसर प्राप्त हो सके।
स्वतंत्रता के पश्चात हमारे देश में 1950 में अपने संविधान का निर्माण हुआ l संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया है l अनुच्छेद 15 व 16 के अंतर्गत सभी सार्वजनिक स्थलों पर घूमने व सार्वजनिक कार्यों में समान सहभागिता का अधिकार दिया गया है l अनुच्छेद 19 सभी भारतीय नागरिकों को स्वतंत्रता का अधिकार देता है l अनुच्छेद 21 (ए) व 45 के माध्यम से सभी के लिए अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की गई है l संविधान के माध्यम से यह भी सुनिश्चित किया गया है कि प्रत्येक भारतीय जन को बिना किसी भेदभाव (जन्मस्थान, जाति, लिंग, धर्म व भाषा) के इन अधिकारों की प्राप्ति होगी l सभी व्यक्तियों की समान सामाजिक सहभागिता व सक्रियता के लिए यह एक प्रभावपूर्ण प्रयास था l संविधान में दिव्यांगता शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है तथापि संविधान में दिए गए संबोधन ‘सभी भारतीय जन’ में दिव्यांग व्यक्ति भी शामिल है l
शिक्षा के क्षेत्र में अधिक से अधिक व्यक्तियों को शामिल करने के लिए तथा उनकी सहभागिताओं के विकास के लिए अलग-अलग समय पर संगठित शिक्षा आयोगों व शिक्षा नीतियों के निर्माण में विशेष प्रावधान किये गए l
1948 में गठित राधाकृष्णन आयोग में शिक्षा के विस्तार के लिए विद्यार्थियों के प्रवेश, शिक्षण विधियों व प्रौढ़ शिक्षा के विस्तार के प्रावधान किये गए है l सामाजिक समन्वय एवं बेहतर सामाजिक व्यवस्था बनाने के लिए जीवन मूल्यों की शिक्षा देने की बात पर जोर दिया गया l
1952 में मुदालियर आयोग का गठन किया गया l इसमें माध्यमिक विद्यालय स्तर की शिक्षा के विस्तार की बात की गई l सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की बात पर जोर दिया गया l सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था की बात कहीं गई l
1964-66 में कोठारी आयोग का गठन किया गया l इस आयोग के अंतर्गत पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तरीय शिक्षा तक की बात एक मंच पर की गई सभी बालकों की शिक्षा में एकरूपता के लिए शिक्षा की संरचना को व्यवस्थित करने के लिए अनुशंसा की l सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए कोठारी आयोग ने महिला शिक्षा, पिछड़े वर्ग की शिक्षा, आदिवासियों की शिक्षा तथा शारीरिक व मानसिक दिव्यांग बालकों की शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित किया l इसमें बालकों की प्रभावी शिक्षा व्यवस्था के लिए पड़ोस में विद्यालय (नेबरहुड स्कूल का प्रत्यय दिया गया ) यह शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक बदलाव पर ध्यान केन्द्रित करने वाला प्रथम राष्ट्रीय आयोग था l दुर्भाग्य से इस आयोग द्वारा अनुशंसित शिक्षा नीति व्यवहार में लागू नहीं हो पाई l
भारत सरकार के बाल कल्याण मंत्रालय ने वर्ष 1974 में समेकित शिक्षा (IEDC (Integrated Education of Disabled Children) की योजना को आरंभ किया l इसका मुख्य उद्देश्य सामान्य व गंभीर दिव्यांगताओं से प्रभावित बालकों को नियमित विद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था में समन्वित करना था l (उमेश शर्मा, 2005) l
1986 नई शिक्षा में सभी बालकों की शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण सहभागिता एवं सहभागिता के लिए प्रावधान किये गए l इसमें दिव्यांग बालकों की शैक्षिक आवश्यकताओं के लिए कहा गया कि शारीरिक व मानसिक रूप से दिव्यांग व्यक्ति समाज का अहम् हिस्सा है l समाज में उनका समान सहभागी के रूप में समन्वय किया जाना अनिवार्य है l इससे उनका वृद्धि एवं विकास बेहतर हो सकेगा l इसके साथ ही अपने अपने जीवन का साहस और विश्वास के साथ सामना कर सकेंगे l (क्रिस्टोफ़र कोलकलो व अनुराधा डे, 2010) इसके लिए नई शिक्षा नीति – 1986 में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई –
 अस्थि विकलांगता व अन्य कम गंभीर दिव्यांगताओं वाले बालकों को सामान्य विद्यालयों में अध्ययन करने के समान अवसर दिए जाए l
 गंभीर दिव्यांगताओं वाले बालकों के लिए जिला स्तर पर आवासीय विद्यालयों की स्थापना की जाएगी l
 दिव्यांग व्यक्ति अपने जीवन को आत्मविश्वास के साथ जी सके इसके लिए उनके व्यवसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाएगी l
 अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों के पाठ्यक्रम में दिव्यांगता विषय को शामिल किया जायेगा l
 स्वैच्छिक संगठनों के द्वारा दिव्यांग बालकों की शिक्षा के लिए स्वैच्छिक प्रयासों को बढ़ावा देना l के. क्लोकेलो व अनुराधा डे, 2010)
1987 में भारत सरकार के ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ ने यूनीसेफ और एनसीईआरटी के साथ मिलकर एक परियोजना का निर्माण किया l इस परियोजना का नाम था – ‘इंटीग्रेतिड एजुकेशन फॉर डिसएबलड’ इसके अध्यापक प्रशिक्षण तथा विद्यालय एवं अन्य सार्वजनिक स्थलों पर दिव्यांग व्यक्तियों के लिए लिए सुविधाएँ जुटाने के लिए सरकारी संगठनों के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों को उत्तरदायित्व दिए गए l इस प्रकार से सरकारी व गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से दिव्यांग व्यक्तियों के सामाजिक समावेशन के लिए अनथक प्रयास किए गए l
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