साहित्यकार प्रमिला पांडेय की कलम से
      06 March 2024

प्रमिला पाण्डेय
साहित्यकार प्रमिला पांडेय की कलम से

मेरे गीत
" गोमती का जल"
भावनात्मक सृजन द्वितीय कृति सचमुच सराहनीय है।
रेलवे विभाग में ट्रेन मैनेजर के पद पर कार्यरत श्री ओम प्रकाश शुक्ल जी का यह दूसरा काव्य संग्रह है। संग्रह की विशेषता में 95 गीत संकलित हैं। जो सभी विषयों पर अपनी छाप छोड़ते हैं।
सभी गीत अपने आप में एक सच्चा मोती है। गांव की माटी से लेकर आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति तक के समय को गीतों में बाखूबी निभाया गया है। हिन्दी पर लिखी गयी विस्तृत रचना का एक -एक शब्द गोमती में उठती लहरों का प्रारूप है। ओमप्रकाश शुक्ल जी की वैसे तो सभी रचनाए बार -बार पढने को मन विवश होता है। किन्तु--
एक रचना गीत रूप में मेरे मन को अन्तर्मन तक स्पर्श कर गयी।
मैं तो केवल देह रहा हूँ,
साथ रही तुम बनकर साया।
प्रेम की अनूठी अभिव्यक्ति है। तुम बसंत हो /करूणामयी हो। कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं।
अन्तर्मन मंदिर सा रहता
याद किया करता हर पल छिन
हृदय बसी हो तुम मूरत सी
पूजा करता हूँ मैं निशिदिन।
कृपा दृष्टि रखें ईश्वर
पुष्प नेह का खिले सदा
ओम जिन्दगी साथ रहे नित,
नेह आपका मिले सदा।
विपदाओ में दुर्गा बनकर दृढ़ हो दुर्गम राह चली
शीतल पवन सरीखी मन को भाती जैसे पुष्प कली।
तब से भाग्य हमारा बदला जब से व्याह तुम्हें घर लाया।
सत्य यही है कदम कदम पर साथ रही तुम बनकर साया।
एक दूजे के प्रति पूर्ण प्रेम समर्पण करती रचना ने मन को भाव विभोर कर दिया।
" मेरे गीत गोमती का जल " शीर्षक इसी पुस्तक की एक ऐसी रचना है ऐसा गीत है जिसकी बूंद - बूंद गोमती का जल नही,, श्रद्धा और मर्यादित शब्दों की गुंथी संवरी एक सरिता है।
नेह से भरी गगरी है । जिससे एक -एक शब्द गोमती और गंगाजल सा छलक कर मन को भाव विभोर करता है। रचनाकार ओम प्रकाश शुक्ल जी लिखते हैं --
इन गीतों में राम देख लो ,
शक्ति रूपिणी छवि सीता की।
राम चरित मानस चौपाई
सहज छंद निर्मल सरिता सी।
पुर संस्कृति का मूल इन्ही में
धरती का श्रृंगार समझ लो
मेरे गीत गोमती का जल
तुम सरयू की धार समझ लो।।
निर्धन का दुख है पीड़ा भी
संन्यासी का सुख सपना भी
भक्ति समर्पण भाव युक्त भी
राम नाम मनके जपना भी
वेद ऋचाओं की धुन जैसी
शब्द -शब्द ओंकार समझ लो
मेरे गीत गोमती का जल
तुम सरयू की धार समझ लो।।
सहज सत्य निष्ठ सौम्य व्यक्तित्व के धनी रचनाकार ओम प्रकाश शुक्ल जी गुरू के प्रति पूर्ण समर्पण करते हुए इसी पुस्तक में दो रचनाए गीत रूप में उद्धेलित करते हैं आपने
लिखा है--
मन में बसते गुरुवर चातक की घटा बनकर
नारायण छवि दिखे जैसे हर दुख की दवा बनकर।।
अक्सर हर उलझन में कुछ युक्ति सुझाते हो
इत उत भटकूं तो मुझे राह दिखाते हो।
अन्तर्मन में गुरुवर रहते हो सखा बनकर।।
गुरू में ईश्वर की छवि देखना ही पूर्ण समर्पण है।
गाँधी और उनके बाद प्रथम कृति के बाद
आपका ये द्वितीय गीत संग्रह सराहनीय है।
इस संग्रह में सभी समाजिक समस्याओ का समावेश मिलता है गांव का परिवेश नेह दुलार और संस्कृति का भी उल्लेख किया गया है।
वैसे तो गीत संग्रह पर जितना लिखा जाय कम ही होगा "मेरे गीत गोमती का जल "
समाज को नयी दिशा देता हुआ गीत संग्रह है। अवश्य ही एक बार पढें।
अनेकानेक शुभकामनाए देते हुए यही कहना चाहूँगी ।
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